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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक *51 आचतुर्थ्य इति व्याप्तवादो वचनतः पुनः / पंचैकत्र न विद्यन्ते ज्ञानान्येतानि जातुचित् // 4 // क्षायोपशमिकज्ञानैः सहभावविरोधात्क्षायिकस्येत्युक्तं पंचानामेकत्रासहभवनमन्यत्र // भाज्यानि प्रविभागेन स्थाप्यानीति निबुद्ध्यतां / एकादीन्येकदैकत्रानुपयोगानि नान्यथा / 5 / / सोपयोगस्यानेकस्य ज्ञानस्यैकत्र यौगपद्यवचने हि सिद्धान्तविरोधः सूत्रकारस्य न पुनरनुपयोगस्य सह द्वावुपयोगौ न स्त इति वचनात्। सोपयोगयोर्ज्ञानयोः सह प्रतिषेधादिति निवेदयन्ति___आङ्' इस निपात के मर्यादा, अभिविधि आदि बहुत अर्थ हैं। आचतुर्थ्य: यहाँ आङ् का अर्थ अभिविधि है। मर्यादा में कण्ठोक्त को छोड़ दिया जाता है और अभिविधि में उस कथित पदार्थ को भी ग्रहण कर लिया जाता है। आचतुर्थ्य: यहाँ व्याप्त अर्थ को कहने वाले आङ् शब्द का कथन कर देने से यह सिद्धान्त प्राप्त हो जाता है कि एक आत्मा में मति, श्रुत, अवधि, मन:पर्यय, केवलज्ञान ये पाँचों ज्ञान युगपत् कभी भी नहीं हो सकते अर्थात् ज्ञानावरण का क्षय हो जाने पर आत्मा में सर्वदा केवलज्ञान ही रहता है क्योंकि देशघाती प्रकृतियों के उदय होने पर होने वाले चार ज्ञानों का क्षायिक ज्ञान के समय में सद्भाव नहीं है // 4 // क्षायोपशमिक ज्ञान के साथ क्षायिकज्ञान का विरोध होने से पाँच ज्ञान एक साथ नहीं होते हैं, ऐसा कहा है। इस सूत्र में कहे गये 'भाज्यानि' शब्द का अर्थ विभाग करके स्थापन करने योग्य है। ‘ऐसा' समझ लेना चाहिए। एक समय में एक आत्मा में एक को आदि लेकर के चार ज्ञान तक हो सकते हैं। वे अनुपयोगात्मक हैं, उपयोग स्वरूप नहीं हैं अर्थात् लब्धिस्वरूप ज्ञान तो एक समय में एक आत्मा में दो, तीन, चार तक हो सकते हैं। किन्तु उपयोग स्वरूप ज्ञान तो एक समय में एक ही होता है क्योंकि उपयोग पर्याय है। चेतनागुण की एक समय में एक ही पर्याय हो सकती है। एक समय में एक आत्मा में दो उपयोग नहीं हो सकते हैं॥५॥ एक आत्मा में उपयोग सहित अनेक ज्ञानों का युगपत् हो जाना यदि कथन करते तो सूत्रकार श्री उमास्वामी महाराज को स्याद्वादसिद्धान्त से विरोध होता। किन्तु अनुपयोगस्वरूप अनेक ज्ञानों का एक ही काल में एक आत्मा में कथन करने पर सिद्धान्त से कोई विरोध नहीं आता है क्योंकि एक साथ उपयोगात्मक दो ज्ञान नहीं हो सकते। ऐसा कहा गया है क्योंकि छद्मस्थ जीवों के बारह उपयोगों में से एक समय में एक ही उपयोग हो सकता है। एक गुण की एक समय में दो पर्यायें नहीं हो सकतीं अत: क्षयोपशमजन्य लब्धिस्वरूप ज्ञान एक से लेकर चार तक हो सकते हैं किन्तु उपयोग स्वरूप पर्याय से परिणत ज्ञान एक समय में एक ही होता है, न्यून अधिक नहीं। उपयोगसहित दो ज्ञानों के साथ-साथ हो जाने का निषेध है। इस रहस्य के सम्बन्ध में श्री विद्यानन्द आचार्य कहते हैं
SR No.004287
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages358
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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