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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 22 पर्यायमात्रगे नैते द्रव्येष्विति विशेषणात्। द्रव्यगे एव तेऽसर्वपर्यायद्रव्यगोचरे॥६॥ एतेष्वसर्वपर्यायेष्वित्युक्तेरिष्टनिर्णयात्। तथानिष्टौ तु सर्वस्य प्रतीतिव्याहतीरणात् // 7 // मतिश्रुतयोर्ये तावद्वाह्यार्थानालम्बनत्वमिच्छन्ति तेषां प्रतीतिव्याहतिं दर्शयन्नाह;मत्यादिप्रत्ययो नैव बाह्यार्थालम्बनं सदा। प्रत्ययत्वाद्यथा स्वप्नज्ञानमित्यपरे विदुः // 8 // तदसत्सर्वशून्यत्वापत्तेर्बाह्यार्थवित्तिवत्। स्वान्यसंतानसंवित्तेरभावात्तदभेदतः // 9 // विषयों का द्रव्येषु यह प्रथम विशेषण लगा देने से मतिज्ञान, श्रुतज्ञान दोनों केवल पर्यायों को ही जानने वाले नहीं हैं, यह बात सिद्ध हो जाती है। अर्थात् - मतिज्ञान और श्रुतज्ञान दोनों, ये द्रव्यों को भी जानते हैं। बिना द्रव्य के निराधार पर्यायें ठहर नहीं सकतीं। अत: वे मति श्रुतज्ञान द्रव्यों में ही प्राप्त है, यानी द्रव्यों को ही जानते हैं, पर्यायों को नहीं, यह एकान्त भी प्रशस्त नहीं है क्योंकि असर्वपर्यायेषु ऐसा दूसरा विशेषण भी लगा हुआ है। अतः कतिपय पर्याय और सम्पूर्ण द्रव्य इन विषयों में नियत हैं। यह सिद्धान्त सिद्ध होता है।६।।। इन कतिपय पर्यायस्वरूप विषयों में मतिश्रुतज्ञान नियत हैं। इस प्रकार कह देने से इष्ट पदार्थ का निर्णय हो जाता है। अर्थात् - इन्द्रियजन्यज्ञान, अनिन्द्रियजन्यज्ञान, मतिपूर्वक श्रुतज्ञान ये ज्ञान कतिपय पर्यायों को विषय करते हैं। यह सिद्धान्त सभी विद्वानों के यहाँ अभीष्ट किया है। यदि इस प्रकार इन दो ज्ञानों के द्वारा कतिपय पर्यायों को विषय करना इष्ट नहीं किया जायेगा तो सभी वादी-प्रतिवादियों के यहाँ प्रतीतियों से व्याघात प्राप्त होगा, इस बात को सूचित किया है॥७॥ जो वादी मतिज्ञान और श्रुतज्ञान का बहिरंग अर्थों को आलम्बन करना नहीं मानते हैं, उनके यहाँ प्रतीतियों से स्वमतव्याघात होता है, उसको दिखलाते हुए आचार्य कहते हैं - मति आदि ज्ञान ज्ञानपना होने से सदा ही बहिरंग अर्थों को विषय करने वाले नहीं हैं जैसे कि स्वप्न ज्ञान / इस प्रकार अनुमान से दूसरे (बौद्ध) कहते हैं। परन्तु उनका यह कहना सर्वथा असत्य है क्योंकि, ऐसा मानने पर सम्पूर्ण पदार्थों के शून्यपने का प्रसंग आता है। तथा घट, पट आदि बहिरंग अर्थों के ज्ञान समान अन्तस्तत्त्व माने गए अपना और अन्य संतानों का सम्यग्ज्ञान भी निरालम्बन हो जाता है। क्योंकि घट, पट आदि के ज्ञानों में और स्वसंतान-परसंतानों को जानने वाले ज्ञानों में ज्ञानपना भेद रहित होकर विद्यमान है अतः स्वसन्तान और परसन्तान के ज्ञानों का भी निरालम्बन होने के कारण अभाव हो जाने से सर्वशून्यपने का प्रसंग आयेगा।।८-९॥ सम्पूर्ण मतिज्ञान और श्रुतज्ञान बहिरंग घट, पट आदि अर्थों को सदा ही विषय करने वाले नहीं हैं जैसे कि स्वप्न का ज्ञान बहिर्भूत नदी आदि को आलम्बन करने वाला नहीं है। इस प्रकार यौगाचार बौद्ध कहते हैं परन्तु उनका यह कहना अयुक्त है, क्योंकि इस प्रकार तो बहिरंग अर्थों के संवेदनसमान अपनी ज्ञान संतान और दूसरे की ज्ञान संतान संवेदन भी असम्भव हो जायेगा। क्योंकि स्वसंतान और परसंतान के ग्राहकज्ञानों की अपेक्षा से स्वसंतान और परसंतान का बाह्यपना विशेषता रहित है।
SR No.004287
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages358
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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