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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 311 का पुनरुपलब्धिसमा जातिरित्याहसाध्यधर्मनिमित्तस्याभावेप्युक्तस्य यत्पुनः। साध्यधर्मोपलब्ध्या स्यात् प्रत्यवस्थानमात्रकम् / / 16 / सोपलब्धिसमा जातियथा शाखादिभंगजे। शब्देस्त्यनित्यता यत्नजत्वाभावेप्यसाविति / 417 / साध्यधर्मस्तावदनित्यत्वं तस्य निमित्तकारणं प्रयत्नानंतरीयकत्वं ज्ञापकं तस्योक्तस्य वादिना क्वचिदभावेपि पुनः साध्यधर्मस्योपलब्ध्या यत्प्रत्यवस्थानमात्रकं सोपलब्धिसमा जातिर्विज्ञेया, “निर्दिष्टकारणाभावेप्युपलंभादुपलब्धिसम' इति वचनात्। तद्यथा-शाखादिभंगजे शब्दे प्रयत्नानंतरीयकत्वाभावेप्यनित्यत्वमस्ति साध्यधर्मोसाविति॥ स चायं प्रतिषेधो न युक्त इत्याहकारणांतरतोप्यत्र साध्यधर्मस्य सिद्धितः। न युक्तः प्रतिषेधोऽयं कारणानियमोक्तितः॥४१८॥ उपलब्धिसमा जाति कौनसी है? उसका लक्षण क्या है? ऐसा पूछने पर जैनाचार्य कहते हैं - घट के समान पुरुष प्रयोगजन्य होने से शब्द अनित्य है। इस अनुमान में शब्द में निष्ठ अनित्यत्व की ज्ञप्ति कराने का निमित्त कारण प्रयत्नजन्यत्व हेतु का कथन कर देने पर भी पुनः प्रतिवादी द्वारा साध्य धर्म की उपलब्धि करके जो केवल प्रत्यवस्थान मात्र (प्रश्नमात्र) उठाना, वह उपलब्धिसमा जाति है। यथा वृक्ष की शाखा के टूटने पर उत्पन्न शब्द पुरुष के प्रयत्न बिना ही होता है। तथापि उसमें अनित्यपना साध्य धर्म विद्यमान है। अत: उस शब्द में पुरुष प्रयत्नजन्यत्व का अभाव होने पर भी साध्य धर्म की अनित्यता विद्यमान होने से पुरुष प्रयोग जन्यत्व हेतु साध्य का साधन नहीं है।४१६-४१७॥ इस प्रकरण में साधने योग्य धर्म तो अनित्यपना है। उसका ज्ञापक निमित्त कारण प्रयत्नानंतरीयकत्व हेतु है। वादी द्वारा कथित हेतु का अभाव होने पर भी पुनः साध्य धर्म की उपलब्धि के द्वारा जो सर्वव्यापक साध्य की अपेक्षा मात्र प्रत्यवस्थान उठाया जाता है, उसे उपलब्धिसमा जाति समझना चाहिए। गौतम सूत्र में कहा है 'निर्दिष्ट कारण का अभाव होने पर भी साध्य धर्म का उपलंभ हो जाना उपलब्धिसम प्रतिषेध है (उपलब्धिसमा जाति है)। उसका उदाहरण इस प्रकार है। जैसे वृक्ष की शाखा के टूटने पर होने वाले शब्द में (तथा बादल की गर्जना समुद्रघोष आदि शब्द में) पुरुष प्रयत्न जन्यत्व का अभाव होने पर भी साध्य धर्म शब्द की अनित्यता का उसमें सद्भाव पाया जाता है। सिद्धान्तवादी कहते हैं कि यह प्रतिवादी के द्वारा कहा या प्रतिषेध युक्त नहीं है। इसके प्रति जैनाचार्य कहते हैं अन्य कारणों से भी यहाँ साध्य धर्म की सिद्धि हो सकती है। अतः प्रतिवादी के द्वारा किया गया प्रतिषेध उचित नहीं है। क्योंकि सामान्य कार्यों के लिए नियत कारणों का नियम कहा गया है। अर्थात् कार्य कारण के बिना नहीं होता है, शब्द कार्य है अत: कारणजन्य हैं / / 418 //
SR No.004287
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages358
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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