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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 299 तांदृशेनेति संदेहो नित्यानित्यत्वधर्मयोः। स चायुक्तो विशेषेण शब्दानित्यत्वसिद्धितः / 379 / यथा पुंसि विनिर्णीते शिरःसंयमनादिना / पुरुषस्थाणुसाधर्योर्द्धत्वतो नास्ति संशयः // 380 // तथा प्रयत्नजत्वेनानित्ये शब्दे विनिश्चिते / घटसामान्यसाधादेंद्रियत्वान्न संशयः॥३८१॥ संदेहेत्यंतसंदेहः साधर्म्यस्याविनाशतः। पुंसित्वादिगतस्येति निर्णयः क्वास्पदं व्रजेत् // 382 // ननु चैषा संशयसमा साधर्म्यसमातो न भिद्यते एवोदाहरणसाधर्म्यात् तस्याप्रवर्तनादिति न चोद्यं, संशयसमानोभयसाधर्म्यात्प्रवृत्तेः / साधर्म्यसमाया एकसाधादुपदेशात्। ततो जात्यंतरमेव संशयसमा। तथाहिअनित्यः शब्दः प्रयत्नानंतरीयकत्वात् घटवदिति, अत्र च साधने प्रयुक्ते सति परः स्वयं संशयेन प्रत्यवस्थानं इस प्रकार शब्द के नित्यत्व और अनित्यत्व धर्म में सन्देह हो जाता है। अत: यह संशयसमा जाति है। अब सिद्धान्ती संशयसमा जाति का खण्डन करते हुए कहते हैं कि - संशयसमा जाति को कहने वाले प्रतिवादी का संशय उठाकर प्रत्यवस्थान (उलाहना) देना युक्तिसंगत नहीं है। क्योंकि विशेष रूप से प्रयत्नानन्तरीयकत्व (पुरुष के प्रयत्न से उत्पन्न होते हैं इस) हेतु के द्वारा शब्द के अनित्यत्व की सिद्धि हो जाती है। जैसे सिर को बाँधना, चलना, केशों को बाँधना आदि क्रियाओं के द्वारा पुरुष के विशेष रूप से निर्णय हो जाने पर पुनः पुरुष और स्थाणु (ठूठ) के साधर्म्य रूप ऊर्ध्वता धर्म के संशय नहीं रहता है / / 379380 // __ उसी प्रकार प्रयत्नजन्यत्व हेतु द्वारा शब्द के अनित्यपन का विशेष रूप से निश्चय हो चुकने पर पुनः घट और सामान्य के साधर्म्य ऐन्द्रियकत्व धर्म से संशय नहीं हो सकता है। यदि निर्णय हो जाने पर भी केवल ऊर्ध्वता या ऐन्द्रियकत्व मात्र से संदेह स्वीकार करोगे, तो अत्यन्त संशय होता रहेगा अर्थात् संशय का अन्त नहीं होगा। क्योंकि पुरुष और शब्दत्व आदि में प्राप्त ऊर्ध्वता तथा ऐन्द्रियकत्व आदि साधर्म्य का कभी विनाश नहीं हो पाता है। इसलिए पुरुष और स्थाणु आदि में होने वाला निर्णय कहाँ स्थान को प्राप्त होगा। . अर्थात् पदार्थों में अन्य पदार्थ के साथ किसी न किसी प्रकार से सदा साधर्म्य रहता ही है। अत: संशय बना ही रहेगा। निश्चयात्मक ज्ञान किसी का भी कभी नहीं होगा // 381-382 // शंका - यह संशयसमा जाति साधर्म्यसमा जाति से विभिन्न नहीं है। क्योंकि उस साधर्म्यसमा की प्रवृत्ति भी उदाहरण के साधर्म्य से ही मानी गई है। ___समाधान - ऐसी शंका नहीं करना चाहिए। क्योंकि दोनों के साधर्म्य से संशयसमा जाति की प्रवृत्ति होती है और एक के साधर्म्य से साधर्म्यसमा जाति की प्रवृत्ति का उपदेश दिया गया है। ___ भावार्थ - क्रियावान् गुण पुद्गल और जीव दोनों में है। अतः क्रियावत्त्व की अपेक्षा साधर्म्य है। अमूर्त आत्मा है और आकाश भी है; इन दोनों में साधर्म्य है। इनमें किसी कारण से संशय भी हो सकता है। अतः साधर्म्य और संशयसमा समान हैं। इनमें कोई विशेषता नहीं है। परन्तु ऐसा कहना युक्त नहीं है, क्योंकि संशयसमा में संशय रहता है, और साधर्म्य समा में एकत्व रहता है। इन दोनों में यह विशेषता है। इसलिए साधर्म्य समा से संशयसमा भिन्न जाति वाली है। इसी बात को स्पष्ट करते हुए जैनाचार्य कहते हैं “घट के समान पुरुष प्रयत्न के अव्यवहित उत्तर काल में उत्पन्न होने के कारण शब्द अनित्य है"। इस प्रकार
SR No.004287
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages358
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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