SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 305
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 292 कारणस्य युक्तं तस्य सर्वमाभाति। अथ क्रियाकारणवायुवनस्पतिसंयोगसदृशो वा प्रकाशसंयोगोन्यश्चान्यत् क्रि याकारणमिति मन्यसे, तर्हि न कश्चिद्धे तुरनैकांतिक: स्यात् / तथाहि / अनित्यः शब्दोऽ मूर्तत्वात्सुखादिवदित्यत्रामूर्तत्वहेतुः शब्दोऽन्योन्यश्चाकाशे तत्सदृश इति कथमस्याकाशेनानैकांतिकत्वं सर्वानुमानाभावप्रसंगश्च भवेत्, अनुमानस्यान्येन दृष्टस्यान्यत्र दृश्यादेव प्रवर्तनात्। न हि ये धूमधर्माः क्वचिद्धमे दष्टास्त एव. धमांतरेष्वपि दश्यते तत्सदशानां दर्शनात। ततोऽनेन कस्यचिद्धेतोरनैकांतिकत्वमिच्छता रूप से यदि क्रिया को करने में समर्थ हैं, तब तो चाहे किसी भी कारण को ग्रहण किया जा सकता है। क्योंकि उसके यहाँ सभी कारण स्वयोग्य क्रियाओं को करने के लिए उचित प्रतीत होते हैं अथवा जिस विचारशील प्रतिवादी के यहाँ पुनः क्रिया को करने में समर्थ होने से उसी विशेष कारण का उपादान करना माना जाता है, उसके यहाँ तो सभी सिद्धान्त उचित हो सकते हैं। वायु का आकाश के साथ संयोग केवल क्रिया के कारण वायु वनस्पति संयोग से सादृश्य रखता है। वस्तुतः भिन्न है अर्थात् क्रिया का कारण रूप संयोग पृथक् है और क्रिया को नहीं करने वाला संयोग भिन्न है। इन दोनों संयोगों की एक जाति नहीं है। अत: प्रतिवादी द्वारा प्रतिकूल दृष्टांतभूत निष्क्रिय आकाश के द्वारा प्रत्यवस्थान देना उचित नहीं है क्योंकि इस प्रकार मानोगे तो कोई भी हेतु अनैकान्तिक हेत्वाभास नहीं हो सकता। इसी बात को दृष्टांत द्वारा स्पष्ट करते हैं कि शब्द (पक्ष) अनित्य है (साध्य), अमूर्त होने से (हेतु), सुख, घट, इच्छा आदि के समान (अन्वय दृष्टान्त) इस अनुमान में दिये गये अमूर्त्तत्व हेतु का व्यभिचार स्थल आकाश माना गया है। किन्तु तुम्हारे विचारानुसार कहा जा सकता है कि शब्द में रहने वाला अमूर्त्तत्व हेतु भिन्न है और आकाश में उस अमूर्तत्व के सदृश दूसरा भिन्न अमूर्तत्व है। ऐसी दशा में इस अमूर्त्तत्व हेतु का आकाश के द्वारा व्यभिचारीपना कैसे बताया जा सकता है? वही शब्दनिष्ठ अमूर्तत्व यदि आकाश में रह जाता, तब तो व्यभिचार दिया जा सकता था। तुमने जैसे वायुवृक्ष संयोग और वायु आकाश संयोग इनकी भिन्न-भिन्न जाति कर दी है, वैसे ही अमूर्त्तत्व भी भिन्न-भिन्न है, तो फिर केवल शब्द में ही रहने वाला वह अमूर्त्तत्व विपक्ष में नहीं रहता है। अत: व्यभिचार हेत्वाभास ही नहीं रह सकता। तुम्हारे यहाँ सभी अनुमानों के अभाव का प्रसंग हो जाएगा। अनुमान तो सादृश्य से ही होता है। अन्य के साथ व्याप्ति युक्त देखे हुए पदार्थों का अन्यत्र दर्शनीय हो जाने से ही अनुमान का प्रवर्तन माना गया है। रसोईघर में अग्नि और धूम भिन्न हैं। तथा पर्वत में वे भिन्न हैं फिर भी सादृश्य की शक्ति से पर्वत में स्थित धूम के द्वारा अग्नि का अनुमान कर लिया जाता है। जो धुंए के तृणसम्बन्धी पन आदि धर्म कहीं रसोईघर, आदि में स्थित धूम में देखे जाते हैं, वे ही धूम के धर्म तो दूसरे धूमों में यानी पक्षभूत पर्वत आदि के धूमों में भी नहीं देखे जाते हैं। उन महानस धूम धर्मों के समान हो रहे अन्य धर्मों का ही पर्वत आदि के धूमों में दर्शन हो रहा है। यदि यह या तुम किसी एक प्रमेयत्व, अग्नि, आदि हेतुओं के अनैकान्तिकपन को चाहते हो और कहीं अग्नि आदि में अनुमान ज्ञान से प्रवृत्ति होने को स्वीकार करते हो तो सिद्धान्ती कहते हैं कि तब इस पण्डित
SR No.004287
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages358
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy