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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 290 एवं ह्याह, दृष्टांतस्य कारणानपदेशात् प्रत्यवस्थानाच्च प्रतिदृष्टांतेन प्रसंगप्रतिदृष्टांतसमौ। तत्र साधनस्यापि दृष्टांतस्य साधनं कारणं प्रतिपत्तौ वाच्यप्रसंगेन प्रत्यवस्थानं प्रसंगसमः प्रतिषेधः तत्रैव साधने क्रियाहेतुगुणयोगात् क्रियावांल्लोष्ठ इति हेतु पदिश्यते, न च हेतुमंतरेण कस्यचित्सिद्धिरस्तीति। सोयमेव वदद्दूषणाभासवादी न्यायवादिनामेवं प्रत्यवस्थानस्यायुक्तत्वात् / यत्र वादिप्रतिवादिनोः बुद्धिसाम्यं तस्य दृष्टांतत्वव्यवस्थितेः। यथा हि रूपं दिदृक्षूणां प्रदीपोपादान प्रतीयते न पुनः स्वयं प्रकाशमानं प्रदीपं दिदृक्षूणां तेषां तदग्रहणात्। तथा साध्यस्यात्मनः क्रियावत्त्वस्य प्रसिद्ध्यर्थं दृष्टांतस्य लोष्ठस्य ग्रहणमभिप्रेतं न पुनर्दृष्टांतस्यैव प्रसिद्ध्यर्थं साधनांतरस्योपादानं प्रज्ञातस्वभावदृष्टांतत्वोपपत्तेः तत्र साधनांतरस्याफलत्वात्। तथा प्रतिदृष्टांतरूपेण प्रत्यवस्थानं प्रतिदृष्टांतसमा जातिस्तत्रैव साधने प्रयुक्ते क्वचित् प्रतिदृष्टांतेन प्रत्यवतिष्ठते क्रियाहेतुगुणाश्रयमाकाशं निष्क्रियं दृष्टमिति। कः पुनराकाशस्य क्रियाहेतुर्गुणसंयोगो वायुना सह, स च संस्कारापेक्षो दृष्टो यथा पादपे इसी प्रकार गौतम ऋषि ने न्यायदर्शन में सूत्र कहा है कि “साध्यसिद्धि में उपयोगी दृष्टान्त के. कारण का विशेष कथने नहीं करने से प्रत्यवस्थान देने की अपेक्षा प्रसंगसम प्रतिषेध हो जाता है और प्रतिकूल दृष्टान्त के उपादान से प्रतिदृष्टान्तसम प्रतिषेध हो जाता है। उस सूत्र के भाष्य में वात्स्यायन ने कहा है कि साध्य के साधक दृष्टान्त की प्रतिपत्ति के निमित्त साधन (कारण) कहना चाहिए। इस प्रकार प्रसंग करके प्रतिवादी द्वारा प्रत्यवस्थान (दूषण) उठाया जाना प्रसंगसम नाम का प्रतिषेध है। जैसे कि अनुमान में क्रिया हेतुगुण के योग से आत्मा का क्रियावत्त्व साधन करने पर लोष्ट दृष्टान्त दिया था। किन्तु पत्थर को क्रियावान् साधने में तो कोई इस प्रकार हेतु नहीं कहा गया है। और हेतु के बिना किसी भी साध्य की सिद्धि नहीं हो पाती है। इस प्रकार प्रतिवादी का दूषण है। अब सिद्धान्ती कहते हैं कि इस प्रकार कहने वाला प्रतिवादी प्रसिद्ध रूप से दूषणभास को कहने की टेव रखने वाला है। न्यायपूर्वक कहने का स्वभाव रखने वाले विद्वानों को इस प्रकार प्रत्यवस्थान देना समुचित नहीं है। यहाँ सिद्धान्त में जहाँ वादी प्रतिवादियों की या लौकिक जन और परीक्षक विद्वानों की बुद्धि सम हो रही है उस अर्थ को दृष्टान्तपना व्यवस्थित है। जिस प्रकार रूप को देखना चाहने वाले पुरुषों को दीपक ग्रहण करना प्रतीत हो रहा है। किन्तु फिर स्वयं प्रकाशमान प्रदीप को देखना चाहने वाले उन मनुष्यों को अन्य दीपकों का ग्रहण करना आवश्यक नहीं है, उसी प्रकार आत्मा के साध्य स्वरूप क्रियावत्त्व की प्रसिद्धि के लिए लोष्ट दृष्टान्त का ग्रहण करना अभीष्ट किया गया है। किन्तु फिर दृष्टान्त के लिए अन्य हेतुओं का उपादान करना आवश्यक नहीं है। क्योंकि प्राय: सभी के यहाँ प्रसिद्ध रूप से जान लिये गये स्वभावों को धारने वाले अर्थ का दृष्टान्तपना माना जाता है। उस दृष्टान्त में भी पुनः अन्य साधनों का कथन करना निष्फल है। तथा साध्य के प्रतिकूल को साधने वाले दूसरे प्रतिदृष्टान्त के द्वारा प्रत्यवस्थान देना प्रतिदृष्टान्त समा जाति है। जैसे कि वहाँ ही अनुमान में आत्मा के क्रियावत्त्व को साधने में हेतु प्रयुक्त कर देने पर कोई प्रतिवादी प्रतिकूल दृष्टान्त के द्वारा प्रत्यवस्थान उठा रहा है कि क्रिया हेतुगुण का आश्रय हो रहा आकाशक्रियारहित देखा गया है।
SR No.004287
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages358
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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