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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 287 अप्राप्य साधयेत्साध्यं हेतुश्चेत्सर्वसाधनः। सोस्तु दीपो हि नाप्राप्तपदार्थस्य प्रकाशकः॥३५८। इत्यप्राप्त्यावबोद्धव्यं प्रत्यवस्थानिदर्शनम् / तावेतौ दूषणाभासौ निषेधस्यैवमत्ययात् // 359 // प्राप्तस्यापि दंडादेः कुंभसाधकतेक्ष्यते। तथाभिचारमंत्रस्या प्राप्तस्यासातकारिता // 360 / / नन्वत्र कारकस्य हेतोः प्राप्तस्याप्राप्तस्य च दंडादेरभिचारमंत्रादेश्च स्वकार्यकारितोपदर्शिता ज्ञापकस्य तु हेतोः प्राप्तस्याप्राप्तस्य वा स्वसाध्या प्रकाशिता चोदितेति न संगतिरस्तीति कश्चित्। तदसत्। कारकस्य ज्ञापकस्य वाऽविशेषेण प्रतिक्षेपोयमित्येवं ज्ञापनार्थत्वात्कारकहेतुव्यवस्थापनस्य / तेन ज्ञापकोपि हेतुः कश्चित्प्राप्त: __इस प्रकार प्रतिवादी द्वारा प्राप्ति करके दिये गये पहिले प्रत्यवस्थान का उदाहरण यहाँ तक दिया जा चुका। अब द्वितीय विकल्प अनुसार अप्राप्तिसमा का उदाहरण कहते हैं। वादी का हेतु यदि साध्य को नहीं प्राप्त होकर साध्य का साधक होगा तब तो सभी हेतु प्रकृत साध्य के साधक हो जायेंगे अर्थात् वह प्रकृतहेतु अकेला ही सभी साध्य को सिद्ध कर लेगा। इस प्रसंग को दूर करना वादी द्वारा अप्राप्ति का पक्ष लेने पर असम्भव है। लोक में भी देखा जाता है कि अप्राप्त पदार्थों का दीपक प्रकाशक नहीं है। इस प्रकार अप्राप्ति करके प्रत्यवस्थान देना यह अप्राप्तिसमा जाति का उदाहरण समझ लेना चाहिए। किन्तु यह प्रतिवादी का उत्तर समीचीन नहीं है। नैयायिक कहते हैं कि वस्तुतः विचारने पर ये प्राप्तिसमा और अप्राप्तिसमा दोनों ही दूषणाभास हैं। क्योंकि इस प्रकार प्रतिवादी द्वारा प्रतिषेध करने का भी अभाव हो जाता है, अथवा प्रतिवादी द्वारा किये गये प्रतिषेध में भी प्राप्ति और अप्राप्ति का विकल्प उठाकर उस प्रतिषेध की असिद्धि करना शक्य हो सकता है तथा इस प्रकार प्रतिपक्ष को साधने वाले प्रतिवादी का हेतु भी असाधक हो जायेगा। साधनीय के साथ प्राप्त दण्ड, चक्र, कुलाल आदि को घट का साधकपना देखा जाता है। तथा मारण, उच्चाटन आदि हिंसा कर्म कराने वाले अभिचार मंत्रों को अप्राप्त होकर भी शत्रु के लिए असाता का कारकपना देखा जाता है। अर्थात् यहाँ बैठे-बैठे हजारों कोस दूर के कार्यों को मंत्रों द्वारा साध्य कर लिया जाता है। इस प्रकार प्राप्त और अप्राप्त सभी पदार्थों का अन्वय व्यतिरेक द्वारा कार्यकारण भाव नियत है। अतः प्राप्ति करके प्रतिषेध देना प्रतिवादी का अनुचित प्रयास है।।३५५-३६० // शंका - इस सूत्र में प्राप्त दण्ड आदि और अप्राप्त उच्चाटक, मारक, पीड़क, अभिचार मंत्र आदि इन कारक हेतुओं का स्वकार्य साधकपना दिखलाया गया है। किन्तु प्रतिवादी ने तो स्वकीय साध्य के साथ प्राप्त अथवा अप्राप्त ज्ञापक हेतुओं की स्वकीय साध्य की ज्ञापकता का प्रतिषेधरूप प्रत्यवस्थान देने की प्रेरणा की थी। इस कारण दृष्टान्त और दार्टान्त की संगति नहीं है। इस प्रकार कोई कह रहा है। समाधान - नैयायिक कहते हैं कि यह उनका कहना सत्य नहीं है। क्योंकि प्राक् असत् कार्यों को बनाने वाला कारक हेतु हो अथवा सत् की ज्ञप्ति कराने वाला ज्ञापक हेतु हो, दोनों में कोई विशेषता नहीं करके हमने यह प्रतिवादी के ऊपर आक्षेप किया है। इस बात को समझाने के लिए यहाँ दृष्टान्त देकर कारक हेतु की व्यवस्था की गयी है। कारक हेतु भी व्यवस्था के ज्ञापक हो जाते हैं। और ज्ञापक हेतु भी ज्ञप्ति के कारक बन जाते हैं।
SR No.004287
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages358
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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