SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 287
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 274 तस्मात्क्रियाभूदित्येवमुपसंहारभाषणे / कश्चिदाहाक्रियो जीवो विभुद्रव्यत्वतो यथा॥३२६॥ व्योम तथा न विज्ञातो विशेषस्य प्रसाधकः / हेतुः पक्षद्वयोप्यस्ति ततोयं दोषसन्निभः॥३२७॥ साध्यसाधनयोाप्तेर्विच्छेदस्यासमर्थनात् / तत्समर्थनतंत्रस्य दोषत्वेनोपवर्णनात् // 328 // नास्त्यात्मनः क्रियावत्त्वे साध्ये क्रियाहेतुगुणाश्रयत्वस्य साधनस्य स्वसाध्येन व्याप्तिर्विभुत्वान्निष्क्रियत्वसिद्धौ विच्छिद्यते, न च तदविच्छेदे तद्रूषणत्वं साध्यसाधनयोर्व्याप्तिविच्छेदसमर्थनतंत्रस्यैव दोषत्वेनोपवर्णनात्। तथा चोक्तं न्यायभाष्यकारेण / “साधर्म्यणोपसंहारे साध्यधर्मविपर्ययोपपत्तेः साधर्म्यण प्रत्यवस्थानं साधर्म्यसमः प्रतिषेध" इति / निदर्शनं, क्रियावानात्मा द्रव्यस्य क्रियाहेतुगुणयोगात्। द्रव्यं लोष्ठः स च क्रियाहेतुगुणयुक्तः क्रियावांस्तथा चात्मा तस्मात्क्रियावानित्येवमुपसंहृत्य परः साधर्म्यणैव प्रत्यवतिष्ठते। निष्क्रिय आत्मा विभुनो द्रव्यस्य निष्क्रियत्वात्। विभ्वाकाशं निष्क्रिय तथा चात्मा तस्मानिष्क्रिय इति। न जब स्थान ही रीता नहीं बचा है तो व्यापक आत्मा क्रिया कहाँ कर सकता है। क्रिया को साधने वाले पहिले पक्ष और क्रियारहितपन को साधने वाले दूसरे पक्ष, इन दोनों भी पक्षों में कोई विशेषता को सिद्ध करने वाला हेतु नहीं है। अत: पिछला पक्ष वस्तुतः दोष नहीं होकर दोष के सदृश दूषणाभास है। क्योंकि यह पिछला कथन पहिले कहे गये साध्य और हेतु की व्याप्ति के विच्छेद करने की सामर्थ्य को नहीं रखता है। उस साध्य . और साधन की व्याप्ति के विच्छेद का समर्थन करना जिसके अधीन है, उसको लोक और शास्त्र में दोष कहा गया है। अत: यह प्रतिवादी का कथन साधर्म्यसमा जाति स्वरूप दोषाभास है॥३२४-३२८॥ ____ आत्मा को क्रिया सहितपना साध्य करने पर क्रियाहेतुगुणाश्रयत्व हेतु की अपने नियत साध्य के साथ जो व्याप्ति है, वह व्यापकपन हेतु से आत्मा का क्रियारहितपना साधने पर नष्ट नहीं हो सकती है। और जब तक उस पहिली व्याप्ति का विच्छेद नहीं होगा, तबतक वह उत्तरवर्ती कथन उस पूर्व कथन का दूषण नहीं समझा जा सकता है, क्योंकि साध्य और साधन की व्याप्ति के विच्छेद का समर्थन करना जिसका अधीन कार्य है, उसको (का) दोषपने के द्वारा निरूपण किया जाता है। और उसी प्रकार न्यायभाष्य को करने वाले वात्स्यायन ऋषि ने स्वकीय भाष्य में कहा है कि अन्वय दृष्टान्त के साधर्म्य के द्वारा हेतु का पक्ष में उपसंहार करने पर पुनः प्रतिवादी द्वारा साध्यधर्म के विपरीत हो रहे धर्म की उपपत्ति करने से साधर्म्य के द्वारा दूषण उठाना साधर्म्यसम नाम का प्रतिषेध है। इस साधर्म्यसम का यह उदाहरण है कि आत्मा (पक्ष) क्रियावान् है। (साध्य) द्रव्य के उचित क्रिया के हेतु गुणों का समवाय सम्बन्धवाला होने से (हेतु) जैसे मिट्टी का डेल या कंकड़, पत्थर द्रव्य क्रिया के हेतु गुणों से समवेत क्रियावान् है, उस प्रकार अदृष्ट या संयोग, प्रयत्न इन क्रिया के हेतु गुणों का धारक आत्मा है। यों वादी पण्डित द्वारा उपसंहार कर चुकने पर दूसरा प्रतिवादी साधर्म्य करके ही दूषण उठा रहा है कि आत्मा निष्क्रिय है। क्योंकि विभुद्रव्य क्रियारहित हुआ करते हैं। जैसे व्यापक आकाश द्रव्य क्रियारहित है, उसी प्रकार व्यापक द्रव्य यह आत्मा है। अत: - आत्मा क्रिया रहित है।
SR No.004287
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages358
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy