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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 242 प्रतिपत्त्युपायत्वान्न निग्रहस्थानमिति चेत्, कथमनेकस्य हेतोदृष्टांतस्य वा प्रतिपत्त्युपायभूतस्य वचनं निग्रहाधिकरणं? निरर्थकस्य तु वचनं निरर्थकमेव निग्रहस्थानं न्यूनवन्न पुनस्ततोन्यत् // . पुनरुक्तं निग्रहस्थानं विचारयितुकाम आहपुनर्वचनमर्थस्य शब्दस्य च निवेदितम् / पुनरुक्तं विचारेन्यत्रानुवादात्परीक्षकैः // 227 // तत्राद्यमेव मन्यते पुनरुक्तं वचोर्थतः / शब्दसाम्येपि भेदेऽस्यासंभवादित्युदाहृतम् // 228 // हसति हसति स्वामिन्युच्चैरुदत्यतिरोदिति। कृतपरिकरं स्वेदोद्गारि प्रधावति धावति। गुणसमुदितं दोषापेतं प्रणिंदति निंदति। धनलव परिक्रीतं यंत्रं प्रनृत्यति नृत्यति // 229 // होने से निग्रहस्थान नहीं है तो प्रतिपत्ति के उपायभूत अनेक हेतुओं और दृष्टान्तों के वचन निग्रहस्थान के अधिकरण कैसे हो सकते हैं? अर्थात् नहीं हो सकते। जिस प्रकार न्यून कथन करने से अर्थ का ज्ञान नहीं होता है अत: न्यून निग्रहस्थान न होकर निरर्थक ही है। उसी प्रकार निरर्थक (निष्प्रयोजन) हेतु दृष्टान्त आदि का प्रयोग करना निरर्थक निग्रहस्थान है। अधिक नामक भिन्न निग्रहस्थान नहीं है। अब नैयायिकों के द्वारा स्वीकृत पुनरुक्त निग्रहस्थान का विचार करने के इच्छुक जैनाचार्य कहते विचार (वस्तु का कथन) करते समय शब्द और अर्थ का पुन: कथन करना पुनरुक्त निग्रहस्थान. है। शब्द पुनरुक्त और अर्थ पुनरुक्त के भेद से पुनरुक्त दो प्रकार का है। समान अर्थ वाले शब्दों का निष्प्रयोजन बार-बार उच्चारण करना शब्दपुनरुक्त है जैसे यह घट है, यह घट है, इत्यादि। घट के द्वारा कथित अर्थ को पुनः कूट शब्द के द्वारा कहना अर्थ पुनरुक्त है। परीक्षक विद्वानों के द्वारा अनुवाद को छोड़कर अन्यत्र शब्द और अर्थ का निष्प्रयोजन कथन करना पुनरुक्त दोष कहा गया है। वस्तु को समझाने के लिए यदि शब्द या अर्थ का पुन:पुनः कथन किया जाता है तो पुनरुक्त दोष नहीं है॥२२७॥ आचार्यदेव कहते हैं कि उस पुनरुक्त के प्रकरण में आदि के अर्थ पुनरुक्त को ही विद्वज्जन दोष मानते हैं अर्थात् जो वचन अर्थ की अपेक्षा पुनरुक्त है, वह पुनरुक्त निग्रहस्थान कहा गया है। क्योंकि शब्दों की समानता होने पर भी अर्थ का भेद हो जाने पर इस पुनरुक्त निग्रहस्थान की असंभवता है। इसका उदाहरण हरिणी छन्द के द्वारा इस प्रकार दिया गया है कि- एक स्वामिभक्ता नायिका स्वामी के हँसने पर जोर से हँसती है, स्वामी के रोने पर जोर से रोती है। परिकरसहित पसीना बहाने वाले स्वामी के दौड़ने पर दौड़ती है, स्वामी के द्वारा निर्दोष गुणी पुरुष की निन्दा करने पर स्वयं निन्दा करने लग जाती है, धनलव (थोड़े से धन) के द्वारा खरीदे हुए खिलौने के समान स्वामी के नाचने पर स्वयं नाचने लग जाती है। इस प्रकार इस उदाहरण में “हसति, रोदिति, धावति' इत्यादिक शब्द की पुनरुक्तता है परन्तु अर्थ की पुनरुक्तता नहीं है। क्योंकि प्रथम कथित रोदिति, हसति, प्रधावति, नत्यति, शान्तृ प्रत्ययान्त होने से सति अर्थ में सप्तमी
SR No.004287
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages358
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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