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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 239 यथा चार्थाप्रतीति: स्यात्तन्निरर्थकमेव ते। निग्रहांतरतोक्तिस्तु तत्र श्रद्धानुसारिणाम् // 223 // यच्चोक्तं, हेतूदाहरणादिकमधिकं यस्मिन् वाक्ये द्वौ हेतू द्वौ वा दृष्टांतौ तद्वाक्यमधिकं निग्रहस्थानं आधिक्यादिति तदपि न्यूनेन व्याख्यातमित्याह हेतूदाहरणाभ्यां यद्वाक्यं स्यादधिकं परैः। प्रोक्तं तदधिकं नाम तच्च न्यूनेन वर्णितम् // 224 // तत्त्वापर्यवसानायां कथायां तत्त्वनिर्णयः / यदा स्यादधिकादेव तदा का नाम दुष्टता // 225 // स्वार्थिके केधिके सर्वं नास्ति वाक्याभिभाषणे। तत्प्रसंगात्ततोर्थस्यानिश्चयात्तन्निरर्थकम् // 226 // जिस प्रकार न्यून कथन (प्रतिज्ञादि हीन वाक्य) से अर्थ की अप्रतिपत्ति होती है (अर्थ की प्रतिपत्ति नहीं होती है), अपितु व्यर्थ ही निग्रहस्थान हो जायेगा। पुन: न्यून अवयवों में निग्रहस्थानान्तरों का कथन करना तो अपने दर्शन की अन्ध श्रद्धा के अनुसार चलने वाले नैयायिकों को ही शोभा देता है, अन्य को नहीं अर्थात् निग्रहस्थान भिन्न नहीं हैं।॥२२३॥ ... जो नैयायिकों ने कहा था कि जिस वाक्य में हेतु, उदाहरण आदि अधिक कहे जाते हैं, दो दृष्टान्त और दो हेतु कहे जाते हैं वह वाक्य "अधिक" नामक निग्रह स्थान है अर्थात् आधिक्य कथन होने से वक्ता का निग्रहस्थान है। जैनाचार्य कहते हैं - न्यून निग्रहस्थान के खण्डन से अधिक नाम निग्रहस्थान का भी व्याख्यान हो जाता है अर्थात् अधिक नामक निग्रह का खण्डन हो जाता है। पर नैयायिकों के द्वारा “जो वाक्य हेतु और उदाहरणों से अधिक है", वह अधिक नामक * निग्रहस्थान कहा गया है। वा उपलक्षण से उपनय, निगमन से भी अधिक है, वह अधिक नामक निग्रहस्थान है। जैनाचार्य कहते हैं कि वह अधिक नामक निग्रहस्थान न्यून नामक निग्रहस्थान के कथन से वर्णित है। अर्थात् न्यून नामक निग्रहस्थान से उसका कथन हो चुका है। अथवा, वाद कथा में जब अन्तिम रूप तक तत्त्व का निर्णय होता है, तब अधिक कथन भी करना पड़ता है। तो वह अधिक कथन निग्रहस्थान से दूषित कैसे हो सकता है! ___ जब किसी को संक्षेप से कहने पर समझ में नहीं आता है तो उसको समझाने के लिए अति अधिक हेतु और उदाहरणों के द्वारा समझाया जाता है। इसलिए अधिक का कथन करना गुण है, दोष नहीं है // 224225 // - स्वार्थ में “अक्' प्रत्यय होता है, उसमें “क” का अधिक उच्चारण होता है। जैसे “भवत्कः" "युष्मत्कः” “जीवकः” इत्यादि। उस "क" प्रत्यय का कोई अधिक अर्थ नहीं होता है। जो अर्थ “युष्मत्" शब्द का है, वहीं अर्थ “युष्मत्कः" शब्द का होता है। अतः स्वार्थ में किये गये “क” प्रत्यय वाले पदों से समुद्धित वाक्यों के कथन करने पर वक्ता के प्रति उस अधिक निग्रह स्थान की प्राप्ति का प्रसंग आयेगा। परन्तु जिस वाद में अधिक बोलने से तत्त्व का निश्चय नहीं हो रहा है, वहाँ अधिक बोलना निरर्थक है। इसलिए अधिक नामक निग्रहस्थान मानना उपयुक्त नहीं है॥२२६॥
SR No.004287
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages358
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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