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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 236 भावादेवाप्राप्तकालस्य निग्रहस्थानत्वसमर्थनादन्यथा परचोद्यस्यैवमपि सिद्धेः। समवायानभ्युपगमाद्बहुप्रयोगाच्च नैवावयवविपर्यासवचनं निग्रहस्थानमित्येतस्य परिहर्तुमशक्तेः। सर्वार्थानुपूर्वी प्रतिपादनाभावोऽवयवविपर्यासवचनस्य निरर्थकत्वान्याय्यः। ततो नेदं निग्रहस्थानांतरं / यच्चोक्तं हीनमन्यतमेनाप्यवयवेन न्यूनं / यस्मिन् वाक्ये प्रतिज्ञादीनामन्यतमावयवो न भवति तद्वाक्यं हीनं वेदितव्यं / तच्च निग्रहस्थानसाधनाभावे साध्यसिद्धेरभावात् प्रतिज्ञादीनां पंचानामपि साधनत्वात्। प्रतिज्ञान्यूनं नास्तीत्येके / तत्र पर्यनुयोज्या:, प्रतिज्ञान्यून वाक्यं यो ब्रूते स किं निगृह्यते? अथवा नेति यदि निगृह्यते कथमनिग्रहस्थानं? न हि तत्र हेत्वादयो न संति उसी प्रकार प्रतिज्ञा, हेतु आदि अवयवों के विपर्यास के द्वारा जहाँ अक्रम शब्दों का उच्चारण किया गया है, वह श्रोता प्रथम तो पदों का अनुक्रम बनाकर शब्दों की आनुपूर्वी को अन्वित करता हुआ जान लेता है, पश्चात् शाब्द बोध को कराने वाली उस आनुपूर्वी से प्रकृत वाच्य अर्थ को जान लेता है अर्थात् अनुक्रम से ही अर्थ का निर्णय होता है। लोक में भी यही देखा जाता है कि सर्वप्रथम कर्म को कहने वाले शब्द का ग्रहण किया जाता है, पश्चात् अधिकरण, सम्प्रदान आदि का प्रयोग होता है। जैसे घंट का निर्माण करने के लिए सर्वप्रथम मिट्टी का ग्रहण होता है, पश्चात् घट के निमित्त चक्र, दंड आदि का। और इस समय भी अर्थ की आनुपूर्वी नहीं है। जैन आचार्य कहते हैं कि “अर्थ की आनुपूर्वी का शब्दों के द्वारा व्याख्यान करने वाला उद्योतकर जिस दार्शनिक का नाम कहते हैं, यह किसका शास्त्र है।" जो अर्थ की आनुपूर्वी के साथ ही शब्द योजना को स्वीकार करता है तथा शास्त्र में वाक्य अर्थों का संग्रह करने के लिए शब्दों को ग्रहण किया जाता है और संगृहीत अर्थ को वाक्यों के द्वारा प्रतिपादन करने वाला वक्ता प्रयोग काल में प्रतिज्ञा, हेतु आदि रूप आनुपूर्वी से प्रतिपादन करता है (समझाता है)। इसलिए सभी प्रकारों से आनुपूर्वी के प्रतिपादन का अभाव होने से ही अप्राप्त काल के निग्रह स्थान का समर्थन किया गया है। अन्यथा इस प्रकार दूसरों की शंकाओं की प्रसिद्धि होती है। तथा शास्त्रों में ऐसा स्वीकार नहीं किया गया है कि क्रम से ही वाक्यों को बोलना चाहिए। तथा क्रम से बोलने से बहुत शब्दों का प्रयोग करना पड़ता है। इसलिए अवयवों का विपर्यास रूप से कथन करना निग्रहस्थान नहीं है। इस कथन का नैयायिकों के द्वारा परिहार करना शक्य भी नहीं है। यदि सभी प्रकारों से अर्थ की आनुपूर्वी के प्रतिपादन का अभाव है तब तो अवयवों के विपर्यास कथन के निरर्थकपने से ही वादी का निग्रहस्थान कहना न्याय से अनपेत है। उस निरर्थकपने से अप्राप्तकाल को पृथक् निग्रहस्थान मानना युक्त नहीं है। अत: अप्राप्तकाल नामक निग्रहस्थान पृथक् नहीं है। जो नैयायिकों ने “अनुमान में नियत किये गये अवयवों में से एक भी अवयव से न्यून कहना, हीन नामक निग्रहस्थान कहा है।" जिस अनुमान वाक्य में प्रतिज्ञा आदि में से कोई भी एक अवयव नहीं कहा जाता है, उस वाक्य को हीन समझना चाहिए और निग्रहस्थान के साधन के अभाव में साध्य की सिद्धि का अभाव हो जाने से प्रतिज्ञा आदि पाँचों अवयवों के साधनत्व की सिद्धि हो जाती है। इसलिए, अनुमान के पाँचों अवयवों में एक अवयव के नहीं बोलने पर भी न्यूनता आ जाती है।
SR No.004287
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages358
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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