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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 225 ननु पक्षप्रतिषेधे ‘प्रतिज्ञानार्थापनयनं प्रतिज्ञासंन्यासः' इति सूत्रकारवचनात् यः प्रतिज्ञातमर्थं पक्षप्रतिषेधे कृते परित्यज्यति स प्रतिज्ञासंन्यासो वेदितव्य: उदाहरणं पूर्ववत् / सामान्येनैकांतिकत्वाद्धेतोः कृते ब्रूयादेक एव महान्नित्य शब्द इति / एतत्साधनस्य सामर्थ्यापरिच्छेदाद्विप्रतिपत्तितो निग्रहस्थानमित्युद्योतकरवचनाच्च प्रतिज्ञासंन्यासस्तस्य प्रतिज्ञाहानेर्भेद एवेति मन्यमानं प्रत्याह एक एव महान्नित्योयं शब्दः इत्यपनीयते। प्रतिज्ञार्थः किलानेन पूर्ववत्पक्षदूषणे॥१८०॥ हेतोद्रियकत्वस्य व्यभिचारप्रदर्शनात् / तथा चापनयो हानि: संधाया इति नार्थभित्॥१८१॥ प्रतिज्ञाहानिरेवैतैः प्रकारैर्यदि कथ्यते। प्रकारांतरतोपीयं तदा किं न प्रकथ्यते // 182 // तन्निमित्तप्रकाराणां नियमाभावतः क्व नु। यथोक्ता नियतिस्तेषां नाप्तोपज्ञं वचस्ततः॥१८३॥ अनैकान्तिक हेत्वाभास हेतु का कथन करके शब्द महान नित्य और एक ही है। ऐसा कह दिया जाने पर वादी स्वकीय ‘शब्द अनित्य है' इस पक्ष को छोड़ देता है। वा इसमें हेतु के सामर्थ्य का ज्ञान न होने से और निग्रहस्थान की प्रयोजक विविध प्रतिपत्ति वा विरुद्ध प्रतिपत्ति हो जाने से प्रतिज्ञासंन्यास नामक निग्रहस्थान होता है। इस प्रकार उद्योतकर का वचन होने से प्रतिज्ञाहानि नामक निग्रहस्थान से प्रतिज्ञासंन्यास नामक निग्रहस्थान भिन्न रूप ही है। समाधान - इस प्रकार प्रतिज्ञासंन्यास नामक निग्रहस्थान को मानने वाले नैयायिक के प्रति जैनाचार्य कहते हैं - पूर्व उदाहरण के समान वादी के इन्द्रियजन्यत्व हेतु का प्रतिवादी के द्वारा व्यभिचार दिखाने से वादी का पक्ष दूषित हो जाने पर निश्चय से वादी के द्वारा “एक ही महान् शब्द नित्य है" यह अपना पूर्व प्रतिज्ञात अर्थ छोड़ दिया जाता है। इसलिए प्रतिज्ञात अर्थ का अपनय (हानि) और प्रतिज्ञा संन्यास, इनमें कोई अर्थ का भेद नहीं है अर्थात् दोनों में कोई भेद नहीं है॥१८०-१८१॥ .. नैयायिक यदि प्रतिज्ञान्तर, प्रतिज्ञाविरोध, प्रतिज्ञासंन्यास इन भिन्न-भिन्न प्रकारों के द्वारा प्रतिज्ञाहानि कहते हैं जो प्रतिज्ञाहानि भिन्न-भिन्न निग्रहस्थानों की प्रयोजक है, तब जैनाचार्य कहते हैं कि प्रतिज्ञाहानि अन्य प्रकार से क्यों नहीं कही जाती है? क्योंकि प्रतिज्ञाहानि के निमित्तों, प्रकारों के नियम का अभाव है। अर्थात् ऐसा कोई नियम नहीं है कि प्रतिज्ञाहानि के निमित्त इतने ही प्रकार के होते हैं; जैसे दृष्टान्त की हानि, उपनय की हानि इत्यादि अनेक प्रकार से प्रतिज्ञा की हानि हो सकती है इसलिए नैयायिकों के द्वारा कथित निग्रह स्थानों की संख्या भी नियत कैसे हो सकती है? अत: उन नैयायिकों के वचन आप्त के द्वारा कथित नहीं है॥१८२-१८३॥ अथवा - प्रतिवादी के द्वारा वादी के पक्ष का नियमपूर्वक प्रतिषेध (खण्डन) कर देने पर वादी का चुप रह जाना, पृथ्वी को देखने लग जाना, ऊपर आकाश को देखते रहना, पूर्व आदि दिशाओं का अवलोकन करना, खकारना, भागने लग जाना, व्यर्थ बकवाद करना, कषाय के उद्वेग में आकर हाथों को
SR No.004287
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages358
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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