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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 207 कस्यचिंत्तत्त्वसंसिद्ध्यप्रतिक्षेपो निराकृतेः। कीर्तिः पराजयोवश्यमकीर्तिकृदिति स्थितम् // 101 // असाधनांगवचनमदोषोद्भावनं द्वयोः। न युक्तं निग्रहस्थानं संधाहान्यादिवत्ततः // 102 // के पुनस्ते प्रतिज्ञाहान्यादय इमे कथ्यते? प्रतिज्ञाहानिः, प्रतिज्ञांतरं, प्रतिज्ञाविरोधः, प्रतिज्ञासंन्यासः, हेत्वंतरं, अर्थांतरं, निरर्थकं, अविज्ञातार्थं, अपार्थकं, अप्राप्तकालं, पुनरुक्तं, अननुभाषणं, अज्ञानं, अप्रतिभा, पर्यनुयोग्यानुपेक्षणं, निरनुयोज्यानुयोगः, विक्षेपः, मतानुज्ञा, न्यूनं, अधिकं, अपसिद्धांतः, हेत्वाभासः, छलं, जातिरिति / तत्र प्रतिज्ञाहानिनिग्रहस्थानं कथमयुक्तमित्याह प्रतिदृष्टांतधर्मस्य यानुज्ञा न्यायदर्शने। स्वदृष्टांते मता सैव प्रतिज्ञाहानिरैश्वरैः // 103 // प्रतिदृष्टांतधर्मानुज्ञा स्वदृष्टांते प्रतिज्ञाहानिरित्यक्षपादवचनात्। एवं सूत्रमनूद्य परीक्षणार्थं भाष्यमनुवदतिसाध्यधर्मविरुद्धेन धर्मेण प्रत्यवस्थिते। अन्यदृष्टांतधर्म स्वदृष्टान्तेऽभ्यनुजानतः॥१०४॥ प्रतिज्ञाहानिरित्येव भाष्यकाराग्रहो न वा। प्रकारांतरोप्यस्याः स्यात् संभवाच्चित्तविभ्रमात् // 105 // निराकृति में ही वादी की विजय स्थित ह॥१०१॥ इसलिए बौद्धों के द्वारा कथित असाधनांग वचन (हेतु के अंगों का कथन नहीं करना) और हेतु के दोषों का उत्थापन नहीं करना, ये दोनों ही निग्रह स्थान हैं। ऐसा कहना युक्ति-संगत नहीं है। जैसे नैयायिकों के द्वारा कथित प्रतिज्ञाहानि, प्रतिज्ञान्तर आदि को निग्रहस्थान कहना उचित नहीं है॥१०२॥ __इसलिए आचार्य कहते हैं कि बौद्ध और नैयायिकों के द्वारा स्वीकृत निग्रहस्थान की व्यवस्था प्रशस्त नहीं है। . नैयायिकों के द्वारा कल्पित प्रतिज्ञाहानि आदि निग्रहस्थान कौनसे हैं? ऐसा पूछने पर जैनाचार्य कहते हैं- प्रतिज्ञाहानि, प्रतिज्ञान्तर, प्रतिज्ञाविरोध, प्रतिज्ञासंन्यास, हेत्वन्तर, अर्थान्तर, निरर्थक, अविज्ञातार्थ, अपार्थक, अप्राप्तकाल, पुनरुक्त, अननुभाषण, अज्ञान, अप्रतिभा, पर्यानुयोग्यानुपेक्षण, निरनुयोज्यानुयोग, विक्षेप, मतानुज्ञा, न्यून, अधिक, अपसिद्धान्त, हेत्वाभास, छल और जाति ये चौबीस नैयायिक के द्वारा स्वीकृत प्रतिज्ञा आदि निग्रह स्थान माने हैं। इनका लक्षण आगे कहेंगे। नैयायिक के द्वारा कथित ये चौबीस निग्रहस्थान युक्त नहीं हैं, उनमें सर्वप्रथम प्रतिज्ञाहानि नामक निग्रह स्थान अयुक्त क्यों है? ऐसी जिज्ञासा होने पर कहते हैं - ईश्वरों ने (ईश्वर की उपासना करने वाले नैयायिकों ने) न्याय दर्शन में स्वकीय दृष्टान्त में प्रतिकूल पक्ष सम्बन्धी दृष्टान्त धर्म की स्वीकारता को ही प्रतिज्ञाहानि कहा है॥१०३॥ ___ गौतम ऋषि के द्वारा रचित न्याय दर्शन म “प्रतिदृष्टान्तधर्मानुज्ञा स्वदृष्टान्ते प्रतिज्ञाहानिः" स्वकीय दृष्टान्त में प्रतिकूल पक्ष सम्बन्धी दृष्टान्त के धर्म की स्वीकारता ही प्रतिज्ञाहानि है। ऐसा अक्षपाद का वचन है। इस अक्षपाद के सूत्र का अनुवाद करके परीक्षा करने के लिए श्री विद्यानन्द आचार्य भाष्य कहते हैं न्याय भाष्य में लिखा है कि स्वकीय अभीष्ट साध्य धर्म के विरुद्ध धर्म के द्वारा प्रत्यवस्थान (दूषण) उठाने पर अन्य प्रतिकूल दृष्टान्त के धर्म को अपने इष्ट दृष्टान्त में स्वीकार कर लेने वाले वादी का प्रतिज्ञाहानि नामक निग्रहस्थान हो जाता है। इस प्रकार भाष्यकार का आग्रह उचित नहीं है। क्योंकि वक्ता के चित्त में विभ्रम हो जाने से या अन्य किसी प्रकार से प्रतिज्ञाहानि होने की संभावना है।।१०४-१०५ //
SR No.004287
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages358
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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