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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 198 सत्यमेतत्, स्वपक्षं साधयन्नेवासाधनांगवचनाददोषोद्भावनाद्वा वादी प्रतिवादी वा तूष्णीभूतं यत्किंचिब्रुवाणं वा परं जयति नान्यथा केवलं पक्षो वादिप्रतिवादिनोः सम्यक् साधनदूषणवचनमेवेति पराकूतमनूद्य प्रतिक्षिपति- . सत्साधनवचः पक्षो मतः साधनवादिनः। सद्दूषणाभिधानं तु स्वपक्षः प्रतिवादिनः // 65 // इत्ययुक्तं द्वयोरेकविषयत्वानवस्थितेः। स्वपक्षप्रतिपक्षत्वासंभवाद्भिन्नपक्षवत् // 66 // वस्तुन्येकत्र वर्तेते तयोः साधनदूषणे। तेन तद्वचसोर्युक्ता स्वपक्षेतरता यदि // 67 // तदा वास्तवपक्षः स्यात्साध्यमानं कथंचन / दूष्यमाणं च निःशंकं तद्वादिप्रतिवादिनोः // 68 // बौद्ध कहते हैं कि यह कथन सत्य है कि स्वकीय पक्ष की सिद्धि करता हुआ वादी या प्रतिवादी अनुमान के प्रतिज्ञा आदि अवयवों को नहीं कहता है तथा हेतु के दोषों का उत्थापन नहीं करता है और सर्वथा चुपचाप रहता है, वा कुछ भी बोल देता है उसको प्रतिवादी जीत लेता है अन्यथा नहीं। अर्थात् स्वपक्ष की सिद्धि करने वाला ही जय को प्राप्त होता है। अथवा केवल समीचीन साधन (हेतु) का कथन करना ही वादी का पक्ष है और वादी के हेतु में दूषण देना प्रतिवादी का पक्ष है। इस प्रकार दोनों की कुचेष्टाओं का अनुवादन कर आचार्य आक्षेप का प्रत्याख्यान करते हैं - श्रेष्ठ हेतु का कथन करना ही साधनवादी का पक्ष माना गया है तथा वादी के हेतु में समीचीन,दूषण का कहना प्रतिवादी का स्वपक्ष है - ऐसा कहना भी युक्तिसंगत नहीं है। क्योंकि दोनों में एक विषय की व्यवस्था नहीं है। अत: स्वपक्ष और प्रतिपक्ष की असंभवता है। जैसे सर्वथा भिन्न पक्षों में स्वपक्ष की व्यवस्था नहीं होती है अर्थात् सिद्धि किसी की की जाती है और दूषण किसी दूसरे का उठाया जाता है तो स्वपक्ष और प्रतिपक्ष का निर्णय नहीं हो सकता है॥६५-६६ // एक ही वस्तु में यदि वादी और प्रतिवादी का साधन और दूषण देना प्रवृत्त होता है, इसलिए वादी और प्रतिवादी के वचनों में स्वपक्ष और प्रतिपक्षपना युक्त है। तदा (तब तो) किसी भी प्रकार से वादी के द्वारा साध्यमान और प्रतिवादी के द्वारा नि:शंक होकर दूषित किया गया ही वास्तविक पक्ष वादी और प्रतिवादी को सिद्ध हो जाता है॥६७-६८॥ शब्द को अनित्य कहने वाले वादियों के यहाँ जो वस्तु वादी के द्वारा सिद्ध की जा रही है और नैयायिक आदि प्रतिवादी के द्वारा वह शब्द का वस्तुभूत अनित्यपना दूषित किया जा रहा है, वही वादी का पक्ष है, क्योंकि पूर्व में इस ग्रन्थ की साठवीं कारिका में शक्यत्व, असिद्धत्व आदि विशेषणों से युक्त तथा ज्ञापक हेतु के विषयभूत पक्षत्व की व्यवस्था की है तथा जो दूषणवादी के द्वारा शब्दादि वस्तु अनित्य रूप से साध्य है और प्रतिवादी के द्वारा दूष्यमाण है वह प्रतिवादी के पक्ष रूप से व्यवस्थित है। किन्तु वादी के साधन वचन और प्रतिवादी के दूषण वचन पक्ष नहीं हैं। क्योंकि वादी के साधन कथन में और प्रतिवादी के दूषण उत्थापन में कोई विवाद नहीं है। विवाद का उनमें अभाव है अर्थात् वादी हेतुओं के द्वारा स्वकीय
SR No.004287
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages358
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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