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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 190 वादिनोर्वादनं वादः समर्थे हि सभापतौ। समर्थयोः समर्थेषु प्राश्निकेषु प्रवर्तते // 31 // सामर्थ्यं पुनरीशस्य शक्तित्रयमुदाहृतम् / येन स्वमंडलस्याज्ञा विधेयत्वं प्रसिद्ध्यति // 32 // मंत्रशक्त्या प्रभुस्तावत्स्वलोकान् समयानपि / धर्मन्यायेन संरक्षेविप्लवात्साधुसात् सुधी: 33 // प्रभुसामर्थ्यतो वापि दुर्लंघ्यात्मबलैरपि। स्वोत्साहशक्तितो वापि दंडनीतिविदांवरः // 34 // रागद्वेषविहीनत्वं वादिनि प्रतिवादिनि / न्यायेऽन्याये च तद्वत्त्वं सामर्थ्य प्राश्निकेष्वदः // 35 // सिद्धांतद्वयवेदित्वं प्रोक्तार्थग्रहणत्वता। प्रतिभादिगुणत्वं च तत्त्वनिर्णयकारिता // 36 // जयेतरव्यवस्थायामन्यथानधिकारता। सभ्यानामात्मनः पत्युर्यशो धर्मं च वांछतः॥३७॥ कुमारनंदिनचाहुर्वादन्यायविचक्षणाः। राजप्राश्निकसामर्थ्यमेवंभूतमसंशयम् // 38 // स्वकीय-स्वकीय योग्य सामर्थ्य से युक्त वादी-प्रतिवादियों का वाद तो सामर्थ्ययुक्त सभापति तथा तत्त्वज्ञान सामर्थ्य युक्त प्राश्निकों (प्रश्न करने वाले सभ्यपुरुषों) के होने पर ही होता है॥३१॥ . सभापति का सामर्थ्य मंत्रशक्ति, प्रभुशक्ति और उत्साह शक्ति इन तीन शक्ति रूप कहा गया है। जिस शक्तित्रय के सामर्थ्य से सभापति का अपने मंडल पर आज्ञा का विधेयत्व गुण (आज्ञा के अनुसार विधान करने योग्य गुण) प्रसिद्ध हो जाता है॥३२॥ ___ मंत्रशक्ति के द्वारा सभापति धर्म न्याय के द्वारा अपने साधर्मी लोगों की, अपने सिद्धान्तों की और उपसर्गों से पीड़ित साधुओं की रक्षा करता है।३३।। प्रभुत्व शक्ति से सभापति अलंघनीय, दुःसाध्य लंघनीय स्वकीय बल के द्वारा स्ववर्ग और स्वधर्म और साधु संतों की रक्षा करता है। दंडनीति को जानने वालों में श्रेष्ठ सभापति तीसरी उत्साह शक्ति के द्वारा धर्म और धर्मात्माओं की रक्षा करता है, तथा अपने अनुशासन से उनको सन्मार्ग पर लगाता है // 34 // प्राश्निकों में वादी और प्रतिवादी के प्रति राग - द्वेष नहीं होना, न्याय-अन्याय में न्याय को न्याय और अन्याय को अन्याय कहने का सामर्थ्य युक्त होना, वादी - प्रतिवादी इन दोनों के सिद्धान्तों को जानने वाला होना, वादी और प्रतिवादी के द्वारा कथित अर्थ का ग्राहकत्व, नव-नव उन्मेष शालिनी बुद्धि निपुणता आदि गुणों से युक्त होना और तत्त्वों का निर्णय करना आदि शक्तियाँ होनी चाहिए। अन्यथा (यदि इन शक्तियों में से प्राश्निक में किसी शक्ति का अभाव है तो) जय और पराजय की व्यवस्था में अनधिकारता होगी अर्थात् ऐसा सभ्य जय, पराजय की व्यवस्था कराने में या जय पराजय का निर्णय करने में समर्थ नहीं हो सकता / स्वकीय यश और धर्म को, तथा सभापति के यश और धर्म को चाहने वाले सभ्यों को (सभासद पुरुषों को) उक्त प्रकार के गुणों से युक्त होना परमावश्यक है।।३५-३६-३७॥ वाद और न्याय में विचक्षण (चतुर) कुमारनन्दी आचार्य राजा (सभापति) और प्राश्निक (सभ्य) पुरुषों के उपरि कथित सामर्थ्य को संशय रहित कहते हैं अर्थात् इन दोनों में यह सामर्थ्य होना ही चाहिए॥३८॥
SR No.004287
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages358
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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