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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 188 नियमव्याख्यानात्। ननु वादे सतामपि निग्रहस्थानानां निग्रहबुद्ध्योद्भावनाभावान्न जिगीषास्ति / तदुक्तं तर्कशब्देन भूतपूर्वगतिन्यायेन वीतरागकथात्वज्ञापनादुद्भावनियमो लभ्यते तेन सिद्धांताविरुद्धः। पंचावयवोपपन्न इति चोत्तरपदयोः समस्तनिग्रहस्थानाधुपलक्षणार्थत्वादेव वादेऽप्रमाणबुद्ध्या परेण छलजातिनिग्रहस्थानानि प्रयुक्तानि न निग्रहबुद्ध्योद्भाव्यते किं तु निवारणबुद्ध्या तत्त्वज्ञानायावयवयोः प्रवृत्तिर्न च साधनाभासो दूषणाभावो वा तत्त्वज्ञानहेतुरतो न तत्प्रयोगो युक्तः इति। तदेतदसंगतं / जल्पवितंडयोरपि तथोद्भावननियमप्रसंगात्तयोस्तत्त्वाध्यवसायसंरक्षणाय स्वयमभ्युपगमात् / तस्य छलजातिनिग्रहस्थानैः कर्तुमशक्यत्वात् / परस्य तूष्णीं भावार्थं जल्पवितंडयोश्छलाद्युद्भावनमिति चेन्न, तथा परस्य इस प्रकार अपसिद्धान्त, न्यून, अधिक और पाँच हेत्वाभास ऐसे आठ निग्रह स्थानों का कथन हुआ। जीतने की इच्छा रखने वाले वादी, प्रतिवादी, एक दूसरे पर ये पाँच निग्रह स्थान उठा सकते हैं। अतः जिगीषु पुरुषों में ही वाद होता है। नैयायिक कहता है कि यद्यपि वाद में आठ निग्रह स्थानों का सद्भाव है तथापि परस्पर में निग्रह बुद्धि के द्वारा निग्रह स्थानों का उठाना नहीं होने से वहाँ परस्पर में जीतने की इच्छा नहीं है। वही न्याय ग्रन्थों में लिखा है कि तर्क शब्द के द्वारा भूतपूर्व का ज्ञान होना इस न्याय से वाद में वीतरागकथापन का ज्ञापक होने से निग्रह स्थानों के उद्भाव का नियम प्राप्त हो जाता है। इसलिए "प्रमाण तर्क साधनोपालंभ" के उत्तर में स्थित “सिद्धान्ताविरुद्ध” और “पंचावयवोपपन्न" इन दोनों पदों के द्वारा सम्पूर्ण निग्रहस्थान, छल, जाति, आदि का उपलक्षणरूप प्रयोजनसहितपना है। इसलिए वाद में अप्रमाणपने की बुद्धि से दूसरों के प्रति छल, जाति और निग्रह स्थानों का प्रयोग किया जाता है। दूसरे (वादी) का निग्रह करने के लिए छल, जाति आदि का उद्भावन नहीं किया जाता है। किन्तु दोषों के निवारण की सद्विचारबुद्धि से तत्त्वज्ञान के अवयवों में वादी, प्रतिवादी की प्रवृत्ति होती है। दूसरे के हेतु को हेत्वाभास बना देना अथवा अपने हेतु में दूषणं नहीं आने देना हमारा लक्ष्य नहीं है। हेत्वाभास कर देना या दूषण नहीं आने देना कोई तत्त्व ज्ञान का कारण नहीं है। इसलिए छल, जाति, निग्रहस्थान आदि का प्रयोग करना युक्तिसंगत नहीं है। भावार्थ - वीतराग कथा में “यहाँ यह होना चाहिए, यह नही होना चाहिए" - इस प्रकार तत्त्वज्ञान के लिए किया गया विचार तर्क है। विमर्षण कर पक्ष प्रतिपक्षों के द्वारा अर्थ का अवधारण करना निर्णय है। तर्क और निर्णय के समय किया गया विचार जैसे वीतरागता का कारण है, वैसे ही वाद में वीतराग कथा का विचार होता है। उसमें वीतरागता के लिए ही छल आदि का प्रयोग किया जाता है। हारजीत के लिए निग्रह स्थान आदि का प्रयोग नहीं है। जैनाचार्य कहते हैं कि यह नैयायिक का कथन पूर्वापरसंगति से रहित है। क्योंकि जल्प और वितण्डा में भी निग्रह बुद्धि से छल, जाति आदि का प्रयोग नहीं है, अपितु तत्त्व के निर्णय के लिए ही छलादि निग्रह स्थानों का प्रयोग करने के नियम का प्रसंग है। क्योंकि नैयायिकों ने जल्प और वितण्डा को तत्त्व निर्णय की सरंक्षा करने के लिए स्वीकार किया है। छल,जाति और निग्रह स्थान के द्वारा तत्त्वं निर्णय करना शक्य नहीं है।
SR No.004287
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages358
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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