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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 186 वाद एव तत्त्वाध्यवसायसंरक्षणार्थत्वाजिगीषतोर्युक्तो न जल्पवितंडे ताभ्यां तत्त्वाध्यवसायसंरक्षणासंभवात् / परमार्थतः ख्यातिलाभपूजावत्। तत्त्वस्याध्यवसायो हि तत्त्वनिश्चयस्तस्य संरक्षणं न्यायबलात्सकलबाधक निराकरणेन पुनस्तत्र बाधक मुद्भावयतो यथाकथंचिन्निर्मुखीकरणं चपेटादिभिस्तत्पक्षनिराकरणस्यापि तत्त्वाध्यवसायसंरक्षणत्वप्रसंगात् / न च जल्पवितंडाभ्यां तत्र सकलबाधकपरिहरणं छलजात्याधुपक्रमपराभ्यां संशयस्य विपर्यासस्य वा जननात्। तत्त्वाध्यवसाये सत्यपि हि वादिनः परनिर्मुखीकरणे प्रवृत्तौ प्राश्निकास्तत्र संशेरते विपर्ययस्यन्ति वा किमस्य तत्त्वाध्यवसायोस्ति किं वा नास्तीति। नास्त्येवेति वा परनिर्मुखीकरणमात्रे तत्त्वाध्यवसायरहितस्यापि प्रवृत्तिदर्शनात्तत्त्वोपप्लववादिवत् साध्य का विघातक हो सके। इसलिए वाद ही तत्त्व निर्णय के संरक्षणार्थ (तत्त्व का निर्णय करने के लिए) उपयोगी होने से जीतने की इच्छा रखने वाले पुरुषों में प्रवर्त्त रहा है। अर्थात् जल्प और वितण्डा तत्त्वनिर्णायक नहीं हैं। इसलिए तत्त्व का निर्णय करने वाले जिज्ञासुओं की जल्प और वितण्डा में प्रवृत्ति नहीं होती है, जैसे विद्वानों में प्रकृष्ट विद्वत्ता की प्रसिद्धि परमार्थतः ख्याति पूजा लाभ आदि से नहीं होती है। अथवा जैसे जल्प और वितण्डा से ख्याति पूजा लाभ की प्राप्ति नहीं होती है-उसी प्रकार जल्प और वितण्डा के द्वारा तत्त्व का निर्णय नहीं होता है। अत: उक्त हेतु वाद ही में ठहरता है। निश्चय से तत्त्व का अध्यवसाय ही तत्त्व का निर्णय है (निश्चय है)। न्याय (प्रमाण और नय) के बल से अथवा प्रमाण और नय के द्वारा अर्थपरीक्षण रूप न्याय के सामर्थ्य से सम्पूर्ण बाधकों (बाधक प्रमाणों) का निराकरण कर देना ही तत्त्व का संरक्षण है। किन्तु पुनः यथाकथंचित् (अन्याय या अनुचित) मार्ग का अनुसरण करके बाधक प्रमाणों का उद्भावन करने वाले प्रतिवादी का मुख बन्द कर देना तत्त्व का संरक्षण नहीं है। यदि किसी का मुख बन्द कर देना ही तत्त्वनिर्णय का सरंक्षण मान लिया जाए तो थप्पड़ मारना आदि के द्वारा वादी के पक्ष के निराकरण करने के भी तत्त्वनिर्णय तथा, तत्त्व के संरक्षण का प्रसंग आयेगा। अर्थात् प्रमाण के द्वारा सकल बाधाओं का निराकरण करने पर ही तत्त्व का निर्णय होता है और तत्त्व की रक्षा होती है। जिस किसी प्रकार से किसी का मुख बन्द कर देने से तत्त्व का निर्णय नहीं होता छल, जाति (असमीचीन उत्तर), निग्रह करना आदि उपक्रम वाले जल्प और वितण्डा के द्वारा पक्ष में आगत सकल बाधकों का परिहार नहीं हो सकता। जल्प और वितण्डा संशय और विपर्यय ज्ञान के उत्पादक हैं अतः तत्त्व का निर्णय करने वाले नहीं हैं। क्योंकि तत्त्व का निर्णय हो जाने पर भी वादी की दूसरे (प्रतिवादी) का जिस किसी अन्याय मार्ग से मुख बन्द करने की प्रवृत्ति होने पर प्राश्निक (प्रश्न करने वाले) सभ्य पुरुष उस विषय में संशय करने लग जाते हैं कि इस वादी के तत्त्व का निर्णय है या नहीं? अथवा सभ्य पुरुष विपरीत हो जाते हैं कि इस वादी को तत्त्व का निर्णय है ही नहीं। क्योंकि इस वादी की तत्त्व निर्णय से रहित केवल स्वपक्ष सिद्धि करने वाले प्रतिवादी का मुख बन्द करने में ही प्रवृत्ति देखी जाती है।
SR No.004287
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages358
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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