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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 168 पर्यायभेदेन भिन्नस्यार्थस्योपलब्धेरन्यथैकपर्यायत्वप्रसंगात् इति। एवंभूताश्रयात् प्रतिषेधकल्पना न सर्वं सदेव तत्क्रियापरिणतस्यैवार्थस्य तथोपपत्तेरन्यथा क्रि यासंकरप्रसंगात् इति / तथोभयनयक्र माक्र - मार्पणादुभयावक्तव्यकल्पना विधिनयाश्रयणात् सहोभयनयाश्रयणाच्च विध्यवक्तव्यकल्पना प्रतिषेधनयाश्रयणात् सहोभयनयाश्रयणाच्च प्रतिषेधावक्तव्यकल्पना क्रमाक्रमोभयनयाश्रयणात्तदुभयावक्तव्यकल्पनेति पंचसप्तभंग्यः। तथा व्यवहारनयाद्विधिकल्पना सर्वं द्रव्याद्यात्मकं प्रमाणप्रमेयव्यवहारान्यथानुपपत्ते: कल्पनामात्रेण तद्व्यवहारे अन्यथा काल, कारक, आदि के भेद करने के व्यर्थपन का प्रसंग होगा, जो कि इष्ट नहीं है। इसी प्रकार समभिरूढ़ नय के आश्रय से प्रतिषेध कल्पना कर लेना। सभी पदार्थ कथंचित् सत् रूप ही नहीं हैं। क्योंकि पर्यायों को कहने वाले पर्यायवाची शब्दों के भेद करके भिन्न-भिन्न अर्थों की उपलब्धि हो रही है।अन्यथा एक ही पर्यायवाची शब्द के द्वारा कथन हो जाने का प्रसंग आयेगा। अथवा पदार्थ की एक ही पर्याय मान लेने से प्रयोजन सिद्ध हो जायेगा। इस प्रकार भिन्न-भिन्न पर्यायों से युक्त पदार्थ तो समभिरूढ़ नय की दृष्टि से सत् है। शेष कोरे सत् तो असत् ही हैं। तथा संग्रहनय की अपेक्षा विधि की कल्पना करते हुए तभी एवंभूत नय के आश्रय से प्रतिषेध की कल्पना कर लेना न स्यात् सर्वं सदेव,' सम्पूर्ण पदार्थ कथंचित् सत्रूप ही नहीं हैं। क्योंकि उस-उस क्रिया में परिणत अर्थ का उस प्रकार होना बनता है। अन्य प्रकार से सद्भूतपना मान लेने पर क्रियाओं के संकर हो जाने का प्रसंग आयेगा। अत: संग्रहनय के द्वारा कोरे सत् की विधि हो जाने पर भी क्रिया परिणतियों के बिना यह नय उसको असत् ही कहता जायेगा। इस प्रकार संग्रह की अपेक्षा विधिकल्पना और व्यवहार आदि पाँच नयों से निषेध कल्पना करते हुए पाँच प्रकार के दो मूलभंग तथा संग्रह व्यवहार या संग्रह ऋजुसूत्र आदि दो-दो नय के क्रम और अक्रम की बिवक्षा कर देने से तीसरे उभय भंग और चौथे अवक्तव्य भंग की कल्पना कर लेना चाहिए। और विधिप्रयोजक संग्रहनय का आश्रय करने से तथा साथ कहने के लिए उभय नयों का आश्रय कर लेने से पाँचवें अस्ति अवक्तव्य भंग की तथा प्रतिषेध के प्रयोजक नयों का आश्रय कर लेने से और एक साथ दो नयों के अर्थ प्रतिपादन करने का आश्रय करने से छठे प्रतिषेधावक्तव्य धर्म की कल्पना कर लेनी चाहिए। तथा क्रम से और अक्रम से और उभय नयों के एक साथ प्रतिपादन का आश्रय करने से उन विधि निषेध के साथ दोनों का अवक्तव्य नाम का सातवाँ भंग बन जाता है। इस प्रकार संग्रह से विधि की विवक्षा करने और उत्तरवर्ती पाँच नयों से निषेध की विवक्षा करने से दो मूलभंगों के द्वारा पाँच सप्तभंगियाँ सिद्ध होती हैं। इसी प्रकार तीसरे व्यवहार नय से विधि की कल्पना करना चाहिए। “स्यात् सर्वं द्रव्याद्यात्मकं” सम्पूर्ण पदार्थ कथंचित् द्रव्यपर्याय आदि स्वरूप हैं क्योंकि अन्यथा (पदार्थों के द्रव्य, पर्याय आदि स्वरूप माने बिना) प्रमाण, प्रमेय, प्रमाता आदि के व्यवहार नहीं बन सकते हैं। बौद्धों के अनुसार कोरी कल्पना से उन प्रमाण, प्रमेयपन का व्यवहार माना जायेगा तो स्वपक्ष की सिद्धि और परपक्ष का निराकरण कर देने की यथार्थ रूप से व्यवस्था नहीं बन सकेगी। इसके लिए वस्तुभूत द्रव्य या पर्यायों को मानते हुए प्रमाण, प्रमेय, व्यवहार का आश्रय करना पड़ता है। द्रव्य या स्थूल पर्यायों को मानने वाले उस व्यवहारी के प्रति तो अब ऋजुसूत्र नय का आश्रय करने से दूसरे भंग प्रतिषेध
SR No.004287
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages358
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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