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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 144 व्यवहाराभासः, प्रमाणबाधितत्वात् / तथाहि-न कल्पनारोपित एव द्रव्यपर्यायप्रविभागः स्वार्थक्रियाहेतुत्वादन्यथा तदनुपपत्तेः / वंध्यापुत्रादिवत् / व्यवहारस्य मिथ्यात्वे तदानुकूल्येन प्रमाणानां प्रमाणता च न स्यात्, स्वप्नादिविभ्रमानुकूल्येनापि तेषां प्रमाणत्वप्रसंगात्। तदुक्तं / “व्यवहारानुकूल्येन प्रमाणानां प्रमाणता / नान्यथा बाध्यमानानां तेषां च तत्प्रसंगतः // " इति। सांप्रतमृजुसूत्रनयं सूत्रयतिऋजुसूत्रं क्षणध्वंसि वस्तु सत्सूत्रयेदृजु / प्राधान्येन गुणीभावाद्र्व्यस्यानर्पणात्सतः // 61 // निराकरोति यद्रव्यं बहिरंतश्च सर्वथा। स तदाभोऽभिमंतव्यः प्रतीतेरपलापतः // 62 // जो नय पुनः कल्पना से आरोपित द्रव्य और पर्याय के विभाग का अभिप्राय करता है, वह कुनय होता हुआ व्यवहाराभास है। क्योंकि यदि द्रव्य और पर्याय के विभाग को वास्तविक नहीं माना जाएगा तो प्रमाणों से बाधा उपस्थित हो जावेगी। तथाहि द्रव्य और पर्याय का विभाग (पक्ष) कोरी कल्पनाओं से आरोपित किया गया नहीं है। अपने-अपने द्वारा की जाने योग्य अर्थक्रिया का हेतु होने से अन्यथा (द्रव्य और पर्याय के विभाग को कल्पित मानोगे तो) उन कल्पित द्रव्य और पर्यायों से उस अर्थक्रिया की सिद्धि नहीं हो सकेगी, जैसे कि वन्ध्या के पुत्र से कुटुम्ब संतान नहीं चल सकती है, आकाश के पुष्प से सुगन्ध प्राप्ति नहीं हो सकती है, इत्यादि व्यतिरेकदृष्टान्त यदि द्रव्य या पर्यायों की कोरी कल्पना करने वाले बौद्ध कहें कि ये सब अर्थक्रिया करने के लिए या 'यह अंश द्रव्य है' 'इतना अंश पर्याय है' ये सब व्यवहार तो मिथ्या हैं। इसके प्रत्युत्तर में आचार्य कहते हैं तब तो उस व्यवहार के अनुकूल रूप से मानी गयी प्रमाणों की प्रमाणता भी नहीं हो सकेगी। अन्यथा स्वप्न, मूछित आदि के भ्रान्त व्यवहारों की अनुकूलता से भी उन स्वप्न आदि के ज्ञानों को प्रमाणपने का प्रसंग आवेगा / वही तुम्हारे ग्रन्थों में कहा जा चुका है कि लौकिक व्यवहारों की अनुकूलता के द्वारा प्रमाणों का प्रमाणपना व्यवस्थित हो रहा है, दूसरे प्रकारों से ज्ञानों की प्रमाणता नहीं है। अन्य प्रकारों से प्रमाणता मानने पर प्रमाण से उन स्वप्न ज्ञान या भ्रान्त ज्ञान अथवा संशय ज्ञानों को भी प्रमाणता का प्रसंग आवेगा / अर्थात् - दिन रात लोकव्यवहार में आने वाले कार्य तो द्रव्य और पर्यायों से ही किये जा रहे देखे जाते हैं। व्यवहारी मनुष्य लौकिक व्यवहारों से ज्ञान की प्रमाणता को जान लेता है। शीतल वायु से जल के ज्ञान में प्रामाण्य जान लिया जाता है। अनुकूल, प्रतिकूल, व्यवहारों से शत्रुता, मित्रता परीक्षित हो जाती है। पठन, पाठन, चर्चा, निर्णायक शक्ति से प्रकाण्ड विद्वत्ता का निर्णय कर लिया जाता है। यदि ये व्यवहार मिथ्या होते तो ज्ञानों की प्रमाणता के सम्पादक नहीं हो सकते थे। अत: व द्रव्य और पर्यायों के विभाग व्यवहार को बताने वाले व्यवहार नय का वर्णन यहाँ तक समाप्त हो चुका है। व्यवहार नय को कहकर अब वर्तमान काल में चौथे ऋजुसूत्र नय की श्री विद्यानन्द स्वामी सूचना देते हैं। _ ऋजुसूत्र नय पर्याय को विषय करने वाला है। क्षण में ध्वंस होने वाली वस्तु के सद्भूत व्यक्त रूप की प्रधानता करके ऋजुसूत्र नय बोध करा देता है। यद्यपि यहाँ नित्य द्रव्य विद्यमान है, तथापि उस सत्
SR No.004287
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages358
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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