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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 139 भिदाभिदाभिरत्यंतं प्रतीतेरपलापतः। पूर्ववन्नैगमाभासौ प्रत्येतव्यौ तयोरपि // 47 // नवधा नैगमस्यैवं ख्याते: पंचदशोदिताः। नया: प्रतीतिमारूढाः संग्रहादिनयैः सह // 48 // त्रिविधस्तावन्नैगमः। पर्यायनैगमः, द्रव्यनैगमः, द्रव्यपर्यायनैगमश्चेति / तत्र प्रथमस्त्रेधा। अर्थपर्यायनैगमो व्यंजनपर्यायनैगमोऽर्थव्यंजनपर्यायनैगमश्च इति। द्वितीयो द्विधा / शुद्धद्रव्यमैगमः, अशुद्धद्रव्यनैगमश्चेति / तृतीयश्चतुर्धा। शुद्धद्रव्यार्थपर्यायनैगमः, शुद्धद्रव्यव्यंजनपर्यायनैगमः, अशुद्धद्रव्यार्थपर्यायनैगमः, अशुद्धद्रव्यव्यंजनपर्यायनैगमश्चेति नवधा नैगम: साभास उदाहृतः परीक्षणीयः / संग्रहादयस्तु वक्ष्यमाणा षडिति सर्वे पंचदश नयाः समासतः प्रतिपत्तव्याः॥ तत्र संग्रहनयं व्याचष्टे- . एकत्वेन विशेषाणां ग्रहणं संग्रहो नयः / स्वजातेरविरोधेन दृष्टेष्टाभ्यां कथंचन // 49 // समेकीभावसम्यक्त्वे वर्तमानो हि गृह्यते / निरुक्त्या लक्षणं तस्य तथा सति विभाव्यते // 50 // द्वारा विषय किये गये पदार्थों का परस्पर में सर्वथा भेद अथवा सर्वथा अतीव अभेद करके कथन करना तो उन दोनों के भी पूर्व के समान दो नैगमाभास समझ लेने चाहिए। क्योंकि अत्यन्त भेद या अभेद पक्ष लेने से प्रतीतियों का अपलाप होता है। अत: सत् और चैतन्य के सर्वथा भेद या अभेद का अभिप्राय शुद्धद्रव्य व्यंजनपर्याय नैगम का आभास है तथा मनुष्य और गुणी का सर्वथा भेद या अभेद जान लेना अशुद्ध द्रव्य व्यंजन पर्याय नैगम का आभास है॥४६-४७॥ उक्त प्रकार से नैगमनय के नौ भेद-प्रभेदों का व्याख्यान करके संग्रह आदि छह नयों के साथ प्रतीति में आरूढ़ नयें पन्द्रह कह दी गयी हैं॥४८॥ नैगमनय तीन प्रकार का है। पर्याय नैगम, द्रव्य नैगम और द्रव्यपर्याय नैगम। ये नैगम के मूल भेद तीन हैं। उनमें पहला पर्यायनैगम तो अर्थपर्यायनैगम, व्यंजनपर्याय नैगम और अर्थव्यंजनपर्यायनैगम तीन प्रकार का है तथा दूसरा द्रव्यनैगम शुद्ध द्रव्यनैगम, अशुद्धद्रव्य नैगम के भेद से दो प्रकार का है। . तथा तीसरा द्रव्यपर्याय नैगम तो शुद्ध द्रव्यार्थपर्यायनैगम 1 शुद्ध द्रव्यव्यंजनपर्यायनैगम 2 अशुद्धद्रव्यार्थपर्यायनैगम 3 अशुद्धद्रव्यव्यंजनपर्यायनैगम 4 इन स्वरूपों से चार प्रकार का है। इस प्रकार नौ प्रकार के नैगमनय को उनके आभासों से सहित उदाहरणपूर्वक कहा गया है जो कि विद्वानों के द्वारा परीक्षा करने योग्य है। और संग्रह आदि छह नय तो भविष्य में कहे जाने वाले हैं। इस प्रकार नौ और छह को मिलाकर सर्व पन्द्रह नय संक्षेप में समझने चाहिए। अब संग्रह नय का व्याख्यान करते हैं। - अपनी सत्तास्वरूप जाति के दृष्ट, इष्ट, प्रमाणों द्वारा अविरोध करके सभी विशेषों को कथंचित् एक रूप से ग्रहण करना संग्रह नय है। संग्रह में 'सं' शब्द का अर्थ समस्त है वा एकीभाव है और ग्रह का अर्थ जान लेना है। अर्थात् अनेक गौओं को देखकर यह गौ है' और यह भी वही गौ है' इस प्रकार की बुद्धियाँ होने और शब्दों की प्रवृत्तियाँ होने के कारण सादृश्य स्वरूप को जाति कहते हैं। सम्पूर्ण पदार्थों का एकीकरण
SR No.004287
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages358
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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