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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 126 केषांचित्तथा वचनोपलंभाच्च न विरुध्यते। अत्र वाक्यभेदे नैगमादेरेकस्य द्वयोश्च सामानाधिकरण्याविरोधाच्च गृहा ग्राम: देवमनुष्या उभौ राशी इति यथा। नन्वेवमेकत्वद्वित्वादिसंख्यागतावपि कथं नयस्य सामान्यलक्षणं द्विधा विभक्तस्य तद्विशेषणं. विज्ञायत इत्याशंकायामाह; नयानां लक्षणं लक्ष्यं तत्सामान्यविशेषतः। नीयते गम्यते येन श्रुतार्थांशो नयो हि सः॥६॥ तदंशौ द्रव्यपर्यायलक्षणौ साध्यपक्षिणौ / नीयेते तु यकाभ्यां तौ नयाविति विनिश्चितौ / / 7 / / नीयतेऽनेनेति नय इत्युक्ते तस्य विषय: सामर्थ्यादाक्षिप्यते। स च श्रुताख्यप्रमाणविषयीकृतस्यांश इति तदपेक्षा निरुक्तिर्नयसामान्यलक्षणे लक्षयति, तथा नीयेते यकाभ्यां तौ नयावित्युक्ते तु द्रव्यार्थिकपर्यायार्थिको नयौ द्वौ तौ च द्रव्यपर्यायाविति तदपेक्षं निर्वचनं नयविशेषद्वयलक्षणं प्रकाशयति / __इस सूत्र में वाक्यों का भेद करने पर नैगम आदि एक का ओर दो का नय शब्द के साथ समान अधिकरणपने का अविरोध होने से उस प्रकार के सूत्र वचन में कोई विरोध नहीं आता है। जैसे कि अनेक गृह ही तो एक ग्राम है। सम्पूर्ण देव और मनुष्य ये दोनों दो राशि हैं। यहाँ ‘जस्' और 'सु' - ऐसे अलग वचन के होते हुए भी अनेक गृहों का एक ग्राम के साथ समान अधिकरणपना निर्दोष माना गया है। 'देवमनुष्याः' शब्द बहुवचनान्त है और राशी द्विवचनान्त है। दोनों का उद्देश्य विधेय भाव बन जाता है। उसी प्रकार ‘नैगमादयो नय:' 'नैगमादयो नयौ' 'नैगमादयो नया:' इस प्रकार भिन्न वाक्य बनाने पर उद्देश्य. विधेय दल के शाब्द बोध करने में कोई हानि नहीं आती है। शंका - इस प्रकार नयः, नयौ, नयाः, ऐसा वाक्य भेद करके एकपन, दोपन, आदि संख्या का ज्ञान हो चुकने पर भी द्रव्य और पर्याय इन दो प्रकारों से विभक्त किये गये नय का सामान्य लक्षण उनका विशेषण है। यह विशेषतया कैसे जाना जा सकता है? ऐसी आशंका होने पर आचार्य कहते हैं। समाधान - सामान्य और विशेष रूप से नयों का लक्षण लक्ष्य योग्य है, अत: जिसके द्वारा श्रुत ज्ञान से ज्ञात अर्थ का अंश प्राप्त किया जाता है (जाना जाता है), वह ज्ञान नियम से नय कहा जाता है। प्रमाणात्मक श्रुतज्ञान से जाने गये उस वस्तु के दो अंश हैं। एक द्रव्य स्वरूप दूसरा पर्याय स्वरूप जो नयों के द्वारा साधने योग्य पक्ष में प्राप्त है। जिन दो नयों के द्वारा वस्तु के वे दो अंश प्राप्त कर लिये जाते हैं, वे दो नय हैं। इस प्रकार विशेषतया दो नय निर्णीत कर दिये गये हैं। नय का सामान्य लक्षण सभी विशेष नयों में घटित हो जाता है। सामान्य नय का विषय भी सभी नयविषयों में अन्वित है॥६-७॥ जिसके द्वारा एकवस्तु के एकदेश का ज्ञान कराया जाता है ऐसा ज्ञान नय है। इस प्रकार कहने पर उस नय का विषय तो बिना कहे ही शब्द की सामर्थ्य द्वारा उपलब्ध हो जाता है। और वह नय श्रुतज्ञान नामक प्रमाण द्वारा विषय किये जा चुके प्रमेय का अंश है। अतः उस विषय की अपेक्षा से हो रही निरुक्ति यहाँ नय के सामान्य लक्षण में दिखला दी जाती है (यहाँ एक विषय और एक ही विषयी है), तथा जिन दो ज्ञापकों के द्वारा वस्तु के दो अंश गृहीत किये जाते हैं, वे दो नय हैं। इस प्रकार कहने पर तो द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक दो नय ज्ञापक हुए और उनके विषय तो वस्तु के दो अंश द्रव्य और पर्याय हुए। इस प्रकार
SR No.004287
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages358
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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