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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 114 स्वर्गकामः पुरुषोग्निहोत्रादिवाक्यनियोगे सति यागलक्षणं विषयमारूढमात्मानं मन्यमानः प्रवर्तत इति यंत्रारूढनियोगवचनं तदपि न परमात्मवादे प्रतिकूलं, पुरुषाभिमानमात्रस्य नियोगत्ववचनात् तस्य चाविद्योदयनिबंधनत्वात्। भोग्यरूपो नियोग इति चायुक्तं, नियोक्तृप्रेरणाशून्यस्य भोग्यस्य तदभावानुपपत्तेः / पुरुषस्वभावोपि न नियोगो घटते, तस्य शाश्वतिकत्वेन नियोगस्य शाश्वतिकत्वप्रसंगात्। पुरुषमात्रविधेरेव तथा विधाने वेदांतवादिपरिसमाप्तेः। कुतो नियोगवादो नामेति? तदेतदसारं, सर्वथा विधेरपि वाक्यार्थानुपपत्तेः। सोपि हि शब्दादेरद्रष्ट व्यतादिव्यवच्छे देन रहितो यदीष्यते तदा न कदाचित्प्रवृत्तिहेतुः, प्रतिनियतविषयविधिनांतरीयकत्वात् प्रेक्षावत्प्रवृत्ते: तस्य वा तद्विषयपरिहाराविनाभावित्वात् कटः कर्तव्य इति फिर नौवें पक्ष के अनुसार नियोगवादियों ने यों कहा था कि स्वर्ग की अभिलाषा रखने वाला पुरुष अग्निहोत्र आदि वाक्य द्वारा नियोग प्राप्त होने पर यागस्वरूप विषय के ऊपर आरूढ़ मानता हुआ प्रवर्तक होता है। इस प्रकार यंत्रारूढ़स्वरूप नियोग है। सो यह उसका कथन भी परम ब्रह्मवाद के प्रतिकूल नहीं है, क्योंकि पुरुष का केवल अभिमान करने को नियोगपना कहा गया है और वह अभिमान तो अविद्या के उदय को कारण मानकर होगया है - यही विधिवादियों का मन्तव्य है। दसवें पक्ष के अनुसार भविष्य में भोगने योग्य पदार्थस्वरूप नियोग है, यह कहना भी युक्ति रहित है, क्योंकि नियोक्ता पुरुष और प्रेरणा से शून्य हो रहे भोग्य को उस नियोगपन की उपपत्ति नहीं हो सकती है। ग्यारहवें पक्ष के अनुसार पुरुष स्वभाव रूप नियोग भी घटित नहीं होता है। क्योंकि वह पुरुष तो नित्य है। अत: ऐसा नियोग मानने पर तो नियोग को भी नित्यपना हो जाने का प्रसंग आता है जबकि नियोग नित्य ही है, तो वेदवाक्यों द्वारा उसका नवीन प्रतिपादन क्यों किया जा रहा है? केवल पुरुष की विधि को ही नियोग वाक्यों द्वारा प्रतिपादन या अज्ञात ज्ञापन करना स्वीकार करने पर तो नियोगवादियों की वेदान्तवाद में परिपूर्ण रूप से प्राप्ति हो जाती है। तो फिर नाम मात्र का भी नियोगवाद किस प्रकार से सिद्ध हो सकता है? अर्थात् नहीं। “स्यान्मतं' से प्रारम्भ कर “नामेति' तक विधिवादियों ने नियोग के ग्यारहों पक्षों का प्रत्याख्यान किया है। अब श्री विद्यानन्द आचार्य कहते हैं कि यह विधिवादियों का कथन निस्सार है, क्योंकि सर्वथा विधि को भी वाक्य का अर्थपना घटित नहीं होता है। “दृष्टव्योरेयमात्मा” इन शब्द, चेष्टा, आदि से आत्मा के दृष्टव्यपन, मन्तव्यपन आदि की वह विधि भी अदृष्टव्य, अमन्तव्यपन आदि के व्यवच्छेद से रहित है? या उन दृष्टव्य आदि से भिन्न की व्यावृत्ति करने वाली है ? प्रथम पक्ष अनुसार यदि दृष्टव्य आदि की विधि को अदृष्टव्य आदि के अपोह करने से रहित मानोगे तब तो किसी भी पुरुष की प्रवृत्ति का कारण वह विधि नहीं हो सकेगी। क्योंकि हित-अहित को विचारने वाले पुरुषों की प्रवृत्तियाँ प्रतिनियत हो रहे विषय की विधि के साथ अविनाभाव रखती हैं और उस विपरीत के परिहार के साथ अविनाभाव रखती हैं। जैसे कि चटाई को बुनना चाहिए ऐसा निर्देश देने पर नौकर की कट में कर्त्तव्यपन की विधि उस चटाई से भिन्न पट, घट, मुकुट
SR No.004287
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages358
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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