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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 110 विषयधर्मो विधिः? पुरुषस्यैव विषयतयावभासमानस्य विषयत्वात्तस्य च परिनिष्पन्नत्वान्न तद्धर्मस्य विधेरसंभव इति चेत्, तर्हि यजनाश्रयस्य द्रव्यादे: सिद्धत्वात्तस्य विषयत्वात्कथं तद्धर्मो नियोगोपि न सिध्येत्? येन रूपेण विषयो विद्यते तेन धर्मेण नियोगोपीति, तदनुष्ठानाभावे विधिविषयो येन रूपेणास्ति तेन तद्धर्मस्य विधेः कथमनुष्ठानं? येनात्मना नास्ति तेनानुष्ठानमितिचेत् तन्नियोगेन समानं / कथमसन्नियोगोऽनुष्ठीयते अप्रतीयमानत्वात् खरविषाणवत् इति चेत्, तत एव विधिरपि नानुष्ठेयः। प्रतीयमानतया सिद्धत्वादनुष्ठेयो विधिरिति चेत्, नियोगोपि तथास्तु / नन्वनुष्ठेयतयैव नियोगोवतिष्ठते न प्रतीयमानतया तस्याः इसके उत्तर में आचार्य विधिवादी पर भी यह अशक्यता दोष लगाते हैं कि “दृष्टव्योरेयमात्मा" इत्यादि वाक्य सुनने के अवसर पर जब दर्शन, श्रवण आदि हैं ही नहीं तो उनका धर्म विधि भी विद्यमान नहीं है। असद्भूत पदार्थ की वाक्य द्वारा प्रतीति नहीं हो सकती है। अतः विषय के धर्म माने गये नियोग के समान विधि की भी सिद्धि कैसे हो सकती है? अर्थात् नहीं। यदि विधिवादी कहें कि हम दर्शन, श्रवण आदि को विधिका विषय नहीं मानते हैं। विषय रूप से प्रतिभासमान परम ब्रह्म को ही विधि का विषय मानते है। पुरुष के पहले से ही परिपूर्णता है। अत: उस पुरुषरूप विषय के धर्मस्वरूप विधि के असम्भवता नहीं है। तब तो नियोगवादी भी कह सकता है कि पूजन के अधिकरण हो रहे, द्रव्य आत्मा, पात्र, स्थान आदि पदार्थ भी पहले से सिद्ध हैं। अत: उन द्रव्यों आदि के विषय हो जाने से उनका धर्म नियोग भी क्यों नहीं सिद्ध होगा? (विधिवादी) जिस रूप से द्रव्यादिक विषय पूर्व से विद्यमान है, उस स्वरूप करके उनका धर्म नियोग भी तो पहिले से ही विद्यमान है। अत: उस नियोग का अनुष्ठान नहीं हो सकेगा। तब तो ब्रह्म विधि का विषय जिस रूप से सदा विद्यमान है, उस स्वरूप के द्वारा उसका विधि विषय भी निष्पन्न हो चुका है। ऐसी दशा में दृष्टव्य आदि वाक्यों के द्वारा विधि का अनुष्ठान भी कैसे किया जा सकता है? जिस स्वरूप से विधि विषयी विद्यमान नहीं है, उस अंश से विधि का अनुष्ठान किया जा सकता है। इस प्रकार कहने पर तो वह अनुष्ठान नियोग में भी समान रूप से किया जा सकता है क्योंकि नियोग और विधि में कोई अन्तर नहीं है। विधिवादी कहते हैं कि अंशरूप से असत् हो रहे नियोग का अनुष्ठान कैसे किया जा सकता है? क्योंकि असत् पदार्थ प्रतीत नहीं होता है। जो प्रतीत नहीं है, उसमें क्रिया नहीं की जा सकती है। अत: खरविषाण के समान असत् नियोग का करना नहीं हो सकता / आचार्य कहते हैं कि तब तो विधि भी अनुष्ठान करने योग्य नहीं रहेगी। अर्थात् अद्वैतवादियों ने भी विषय के असद्भूत अंश कर के ही विधि का अनुष्ठान किया जाना माना है। किन्तु प्रतीत स्वरूप के द्वारा सिद्ध होने के कारण विधि का तो अनुष्ठान किया जा सकता है। इस प्रकार विधिवादियों के कहने पर तो हम जैन भी कह सकते हैं कि नियोग भी इसी प्रकार अनुष्ठान करने योग्य हो सकता है। वह भी प्रतीति करके सिद्ध है। अप्रतीयमानत्व हेतु वहाँ असिद्ध है। अत: विधि के समान नियोग भी प्रतीयमान होने से अनुष्ठेय है।
SR No.004287
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages358
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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