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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 107 दर्शनादेव प्रवृत्त्युपपत्तेः / पुरुषाद्वैते न कश्चित् कुतश्चित् प्रवर्तत इतिचेत्, सिद्धस्तर्हि विधिरप्रवर्तको नियोगवदिति न वाक्यार्थः। पुरुषाद्वैतवादिनामुपनिषद्वाक्यादात्मनि दर्शनश्रवणानुमनननिध्यानविधानेप्यप्रवर्तने कुतस्तेषां तदभ्यासः साफल्यमनुभवति मत्तोन्मत्तादिप्रलापवत्, कथं वा सर्वथाप्यप्रवर्तको विधिरेव वाक्यार्थो न पुनर्नियोगः। पटादिवत् पदार्थांतरत्वेनाप्रतिभासनात् नियुज्यमानविषयनियोक्तृधर्मत्वेन चानवस्थानान्न नियोगो वाक्यार्थ इति चेत् तदितरत्र समानं, विधेरपि घटादिवत्पदार्थांतरत्वेनाप्रतिभासनाद्विधाप्यमानविषयविधायकधर्मत्वेनाव्यवस्थितेश्च / यथैव हि नियोज्यस्य पुंसो धर्मे नियोगे अननुष्ठेयता नियोगस्य सिद्धत्वादन्यथानुष्ठानोपरमाभावाअल्प पदार्थों को जानने वाले अल्पज्ञ फल-अभिलाषी जीवों की फलप्राप्ति के लिए दर्शन से ही फल प्राप्ति की अभिलाषा से प्रवृत्ति होना सिद्ध हो जायेगा। विधि को प्रवर्तक कहना व्यर्थ है। फिर भी विधिवादी कहते हैं कि भेदवादियों के यहाँ कोई कहीं किसी से प्रवृत्ति करे, किन्तु अद्वैतवादियों के यहाँ ब्रह्माद्वैत में कोई भी किसी से भी प्रवृत्ति नहीं करता है, तब तो प्रवृत्ति नहीं कराने वाले नियोग के समान विधि भी वाक्य का अर्थ सिद्ध नहीं हुआ। पुरुषाद्वैतवादियों के यहाँ “दृष्टव्यो' इत्यादि उपनिषद् के वाक्य से आत्मा में दर्शन करना, श्रवण करना, अनुमनन करना और ध्यान करना इन क्रियाओं में भी यदि प्रवृत्ति नहीं मानी जायेगी तो उन अद्वैतवादियों का उन दर्शन आदि में अभ्यास कैसे होगा? दर्शन आदि के बिना वह उनका अभ्यास और किसी फल की अपेक्षा से सफलता अनुभव कैसे कर सकता है? जैसे कि मदमत्त या उन्मत्त पुरुषों के व्यर्थ वचन. सफल नहीं हैं। - उसी के समान उपनिषद् वाक्यों का अभ्यास भी अनर्थक है। तथा सभी प्रकारों से अप्रवर्तक हो रही विधि ही तो वाक्य का अर्थ होता है। किन्तु अप्रवर्तक नियोग वाक्य का अर्थ नहीं हो सकता, यह सर्वथा पक्षपात पूर्ण मन्तव्य कैसे माना जा सकता है अर्थात् नहीं। _ जैसे आत्मा से भिन्न कल्पित किये गये पट आदि कार्य भिन्न पदार्थपने रूप प्रतिभास रहे हैं उसके समान नियोग भिन्न पदार्थ रूप से नहीं प्रतिभास रहा है। तथा नियुक्त पुरुष या यज्ञ आदि विषय में नियोग करने वाले वेद वाक्य का धर्मस्वरूप वह नियोग व्यवस्थित नहीं है। अर्थात् - जैसे नियुज्यमान पुरुष का धर्म होकर या नियोक्ता का धर्म होकर पट दिख रहा है, वैसा नियोग नहीं है। अत: दो हेतुओं से नियोग की व्यवस्था नहीं होने से नियोग वाक्य का अर्थ नहीं है, इस प्रकार विधिवादियों के कहने पर जैनाचार्य कहते हैं कि यह कटाक्ष तो दूसरे के यहाँ भी यानी तुम विधिवादियों के ऊपर भी समान रूप से लग जाता है। विधि का भी घट आदि के समान पुरुष से पृथक् पदार्थ रूप से प्रतिभास नहीं होता है। तथा विधान करने योग्य दर्शन आदि या दृष्टव्य विषय का धर्म अथवा विधि को कहने वाले वैदिक शब्द के धर्म के द्वारा विधि की व्यवस्था नहीं हो रही है। अतः विधि भी वाक्य का अर्थ नहीं सिद्ध हो सकता है। “यथैव” का अन्वय छह, सात पंक्ति पीछे आने वाले तथा शब्द के साथ करना चाहिए। जिस
SR No.004287
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages358
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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