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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 104 नेतरे अविपर्यस्तत्वादिति वदतो निवारयितुमशक्तेः / सौगतादिमतस्य प्रमाणबाधितत्वात् त एव विपर्यस्ता न प्राभाकरा इत्यपि पक्षपातमात्रं तन्मतस्यापि प्रमाणबाधनविशेषात् / यथैव हि प्रतिक्षणविनश्वरसकलार्थवचनं प्रत्यक्षादिविरुद्धं तथा नियोगाद्विषयादिभेदकल्पनमपि सर्वप्रमाणानां विधिविषयतयावधारणात् सदेकत्वस्यैव परमार्थतोपपत्तेः / यदि पुनरप्रवर्तकस्वभावः शब्दनियोगस्तदा सिद्ध एव तस्य प्रवृत्तिहेतुत्वायोगः / फलरहिताद्वा नियोगमात्रान्न प्रेक्षावतां प्रवृत्तिरप्रेक्षावत्त्वप्रसंगात्, प्रयोजनमनुद्दिश्य न मंदोपि प्रवर्तत इति प्रसिद्धेश्च / प्रचंडपरिदृढवचननियोगादफलादपि प्रवर्तनदर्शनाददोष इति चेन्न, तन्निमित्तापायपरिरक्षणस्य फलत्वात्। तन्नियोगादप्रवर्तने हि ममापायोवश्यंभावीति तन्निवारणाय प्रवर्तमानानां प्रेक्षावतामपि तत्त्वाविरोधात्। तर्हि मन विपर्यय ज्ञान से आक्रान्त हो रहा है। अत: वे शब्द के अर्थ नियोग से कर्मकाण्डों में प्रवृत्ति करते हैं। किन्तु दूसरे बौद्ध तो विपर्यय ज्ञान से घिरे हुए मन को नहीं धारण करने से कर्मकाण्ड में प्रवृत्ति नहीं करते हैं। इस प्रकार कहने वाले अद्वैतवादियों को रोका नहीं जा सकता है। ... बौद्ध, चार्वाक आदि दार्शनिकों का मत तो प्रमाणों से बाधित है। अत एव वे बौद्ध आदि ही विपर्यय ज्ञानी हैं। प्रभाकरमतानुयायी तो विपरीत ज्ञानी नहीं हैं। विधिवादी कहते हैं कि यह भी नियोगवादियों का केवल पक्षपात है। क्योंकि उन नियोगवादी प्रभाकरों का मत भी प्रमाणों से बाधित हो जाता है। बौद्धों की अपेक्षा प्रभाकरों में कोई विशेषता नहीं है। जिस प्रकार सम्पूर्ण अर्थों को प्रतिक्षण विनाशशील कहना यह बौद्धों का मत प्रत्यक्ष आदि प्रमाणों से विरुद्ध है, उसी प्रकार प्रभाकरों के यहाँ मानी गई नियोग उनके विषय, नियुज्यमान, नियोक्ता, आदि भेदों की कल्पना भी प्रमाणों से बाधित है, इस प्रकार बौद्ध भी कह सकते हैं। परमार्थरूप से विचार करने पर तो सम्पूर्ण प्रमाणों के द्वारा अद्वैत विधि का विषयपने से अवधारण किया जा रहा है। सत् चित् ब्रह्म के एकपने को ही यथार्थपना सिद्ध हो रहा है। अद्वैतवादी ही कहे जा रहे हैं कि द्वितीय पक्ष के अनुसार फिर यदि प्रभाकर इस प्रकार कहे कि शब्द का अर्थ नियोग तो प्रवर्तक स्वभाव वाला नहीं है, तब तो हम विधिवादी कहते हैं कि उस नियोग को प्रवृत्ति के कारणपन का अयोग सिद्ध ही है अर्थात् नियोग कर्मकाण्ड का प्रवर्तक नहीं बन सकता है। अद्वैतवादी कहते हैं कि नियोग फल रहित है? अथवा फल सहित है? प्रथमपक्ष अनुसार फल रहित सामान्य नियोग से हिताहित को विचारने वाले प्रामाणिक पुरुषों की किसी भी कार्य में प्रवृत्ति नहीं हो सकती है क्योंकि ऐसी प्रवृत्ति करने वाले को अविचारपूर्वक कार्य करने का प्रसंग आता है। एक बात यह भी है कि प्रयोजन का उद्देश्य नहीं लेकर मंदबुद्धि या आलसी जीव भी प्रवृति नहीं करता है। ऐसी लोक में प्रसिद्धि है। इस पर नियोगवादी कहते हैं कि प्रतापी महाक्रोधी प्रभु के निष्फल वचन नियोग से प्रजाजनों की प्रवृत्ति होना देखा जाता है। अत्यन्त क्रोधी राजा अन्यायपूर्वक क्रिया करने में यदि प्रजाजनों को नियुक्त कर देता है, उसके भय से निष्फल नियोग द्वारा भी प्रवृत्ति करनी पड़ती है। तब तो निष्फल नियोग से भी प्रवृत्ति होना कोई दोष नहीं है। ऐसा नहीं कहना चाहिए। क्योंकि प्रचंड राजा के नियोग से यदि कथमपि प्रवृत्ति नहीं की जायेगी तो मेरा विनाश या मुझको दण्डप्राप्ति अवश्य होगी। इस कारण उस अपाय के निवारण करने के लिए प्रवृत्ति करने वाले विचारशील प्रामाणिक पुरुषों को भी उस प्रेक्षावानपने का कोई विरोध नहीं है। तब तो
SR No.004287
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages358
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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