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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक*८८ प्रमाणसंप्लवस्त्वेवं स्वयमिष्टो विरुध्यते। सिद्धे कुतश्शनार्थेन्यप्रमाणस्याफलत्वतः॥८४॥ मानेनैकेन सिद्धेर्थे प्रमाणांतरवर्तने। यानवस्थोच्यते सापि नाकांक्षाक्षयत: स्थितेः // 85 // सरागप्रतिपत्तॄणां स्वादृष्टत्वमतः क्वचित् / स्यादाकांक्षाक्षयः कालदेशादेः स्वनिमित्ततः // 86 // वीतरागाः पुनः स्वार्थान् वेदनैरपरापरैः / प्रतिक्षणं प्रवर्तते सदोपेक्षापरायणाः // 87 // प्रमाणसंप्लवे चैवमदोषे प्रत्युपस्थिते। गृहीतग्रहणात् क्व स्यात् केवलस्याप्रमाणता॥८८॥ किये गये प्रमाण संप्लव का विरोध प्राप्त होता है। यानी वे प्रमाणसंप्लव नहीं मान सकेंगे। क्योंकि किसी भी एक प्रमाण से अर्थ के प्रसिद्ध हो चुकने पर अन्य प्रमाणों को व्यर्थपना प्राप्त होता है॥८३-८४॥ ___ प्रमाण के द्वारा पदार्थ के सिद्ध हो जाने पर पुनरपि यदि अन्य प्रमाणों की प्रवृत्ति मानने पर अनवस्था दोष कहा जाता है। वह अनवस्था भी आकांक्षाओं के क्षय हो जाने से नहीं आती है। यह व्यवस्थित सिद्धान्त है। जब तक आकांक्षा बढ़ती जायेगी निराकांक्षा होने पर प्रमाता वहीं अवस्थित हो जाता है। रागसहित या इच्छासहित प्रतिपत्ताजनों को अपने अदृष्ट के वश से आकांक्षा का क्षय हो जाता है। अर्थात् - जैसे अत्यन्त प्रिय पदार्थ का वियोग हो जाने पर उसकी स्मृतियाँ हमको सताती रहती हैं। पश्चात् हमारे सुख दुःखों के भोग अनुकूल पुण्यपापों के द्वारा वे स्मृतियाँ प्राय: नष्ट हो जाती हैं। यदि वे स्मृतियाँ या आकांक्षायें नष्ट नहीं हों तो जीवित रहना या अन्य कार्यों को करना ही अति कठिन हो जाता है। कहीं-कहीं अपनी आकांक्षाक्षय के निमित्त कारण काल, देश, विषयांतर संचार विस्मारक पदार्थ सेवन आदि से भी आकांक्षा का क्षय हो जाता है।८५-८६॥ आकांक्षा का क्षय हो जाने से रागी ज्ञाताओं को तो अनवस्था हो नहीं सकती है। फिर उत्तरोत्तर काल में होने वाले ज्ञानों के द्वारा स्व और अर्थों को जानने वाले वीतराग पुरुष सर्वदा उपेक्षा धारने में तत्पर होकर प्रतिक्षण प्रवृत्ति करते हैं। अर्थात् - वीतराग मुनि या सर्वज्ञ के कहीं किसी पदार्थ में आकांक्षा तो नहीं है। उनके ज्ञान का साक्षात् फल अज्ञाननिवृत्ति और परम्पराफल विषयों में रागद्वेष की परिणति नहीं होने रूप उपेक्षा भाव है। सर्वज्ञ का ज्ञान गृहीतग्राही नहीं है। क्योंकि सर्वज्ञ को सभी पदार्थ अपने-अपने धर्मों से सहित होकर प्रतिभासित होते हैं। तथा भूत भविष्यत् काल की अपेक्षा भिन्न-भिन्न रूप से ग्रहण होते हैं। इस प्रकार प्रतिवादी जैनों के द्वारा एक भी अर्थ में धर्मों की अपेक्षा विशेष, विशेषांशों को जानने वाले बहुत प्रमाणों की प्रवृत्ति होने स्वरूप प्रमाण संप्लव को इस रीति से दोष रहित उपस्थित करने पर केवलज्ञान के गृहीत करने में अप्रमाणता कैसे हो सकती है? इस प्रकार श्रेष्ठ नयों के द्वारा सम्पूर्ण प्रमाणों के अपूर्व अर्थ का ग्राहीपना सिद्ध हो जाने पर अकिंचित्कर नाम का कोई भी हेत्वाभास नहीं हो सकता है। अर्थात् - पूर्व में ज्ञात शब्दों का ही कर्णइन्द्रिय से ग्रहण होना अनुमान द्वारा जाना जा सकता है। ऐसी दशा में अनुमान या हेतु कुछ कार्य को करने वाला कहा जा सकता है। किसी भी पुरुष के प्रतिदिन होने वाले ज्ञानों में से बहुभाग ज्ञान तो जानी हुई वस्तु के विशेषांशों को ही अधिकतर जानते रहते हैं। अत: अकिंचित्कर नामका हेत्वाभास नहीं मानना चाहिए। एक
SR No.004287
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages358
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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