________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक* 47 संवेदनाद्वैताश्रयणात् / तदपि न च। तदित्येवेति चेत् न तस्य निरस्तत्वात्। किं चेदं संवेदनं सत्यं प्रमाणमेव मृषासत्यमप्रमाणं। न हि न प्रमाणं नाप्यसत्यं / सर्वविकल्पातीतत्वात् संवेदनमेवेति चेत् सुव्यवस्थितं तत्त्वं / को हि सर्वथानवस्थितात्खरविषाणादस्य विशेषः / स्वयं प्रकाशमानत्वमितिचेत् तद्यदि परमार्थसत् प्रमाणत्वमन्वाकर्षति / ततो द्वयं संवेदनं यथास्वरूपे केनचित्तदतत्स्वरूपमपि प्रमाणं तथा हि बहिरर्थे किं न भवेत् तस्य तद्व्यभिचारिणो निराकर्तुमशक्तेः। पारंपर्यं च परिहतमेव स्यात् / संविदर्थयोरंतराले सारूप्यस्याप्रवेशात्। यदि पुन: संवेदनस्य स्वरूपसारूप्यं प्रमाणं सारूप्याधिगतिः फलमिति परिकल्प्यते तदानवस्थोदितैव / ततो ज्ञानादन्यदिंद्रियादिसारूप्यं न प्रमाणमन्यत्रोपचारादिति स्थितं ज्ञानं प्रमाणमिति / / बौद्धों ने तो “अज्ञात अर्थ का प्रकाश करने वाला और स्वरूप की अधिगति का उत्कृष्ट कारण प्रमाण तत्त्व माना है।" संवेदनाद्वैत का आश्रय करने से वह मुख्य प्रमाण नहीं है और न उस स्वसंवेदन को प्रमाणता है केवल वह शुद्ध संवेदन ही है। ऐसा कहना भी उचित नहीं है। क्योंकि उस संवेदन अद्वैत का पूर्व प्रकरणों में खण्डन किया जा चुका है। अथवा यह आपका माना हुआ संवेदन यदि सत्य है तब तो प्रमाण ही होगा और यदि मिथ्या होकर असत्य है तो अप्रमाण ही है (ऐसी दशा में प्रमाणपना और अप्रमाणपना कैसे मिट सकता है?)। प्रमाणपना, अप्रमाणपना, सत्यपना आदि सम्पूर्ण विकल्पों से रहित होने के कारण संवेदन तो संवेदन ही है और कुछ नहीं, इस प्रकार अद्वैतवादियों के कहने पर क्या तत्त्व सुव्यवस्थित हो जाता है? वस्तुरूप से सर्वथा अव्यवस्थित खरविषाण से इस अद्वैत संवेदन का कौनसा अन्तर है? अर्थात्-सभी विकल्पों से रहित संवेदन तो खर विषाण के समान असत् ही है। यदि कहो कि संवेदन का स्वयं प्रकाशमानपना खरविषाण से अन्तर डालने वाला है, तो वह संवेदन यदि वास्तविक सत् है, तब तो प्रमाणपने को खींच लेता है अतः अद्वैतवादियों का वह अनाकार संवेदन जैसे स्वरूप में प्रमाण है, उसी प्रकार अनाकार संवेदन बहिरंग अर्थ को जानने में भी प्रमाण क्यों नहीं हो जाता है? उससे अपने आकार का समान अर्थों से व्यभिचार रखने वाले संवेदन का निराकरण नहीं किया जा सकता है। दूसरी बात यह है कि इस परम्परा द्वारा ज्ञान होने का भी परिहार हो ही जावेगा क्योंकि ज्ञान और अर्थ के अन्तराल (मध्य) में तदाकारता का प्रवेश नहीं किया गया है। यदि फिर संवेदन के स्वरूप में ज्ञान स्वरूप का आकार प्रमाण है और उस सारूप्य की अधिगति होना फल है, ऐसी कल्पना करते हैं तो अनवस्था दोष आता है। (अर्थात् तदाकारता की अधिगति भी साकारज्ञान द्वारा होगी और उस साकारज्ञान की तदाकारता का अधिगम भी तदाकार ज्ञान से होगा। इस प्रकार नियतव्यवस्था नहीं हो सकती है)। तथा, ज्ञान से भिन्न इन्द्रिय, सन्निकर्ष, तदाकारता आदि वास्तविक प्रमाण नहीं हैं,अपितु उपचार मात्र से प्रमाण हैं अर्थात् ज्ञान द्वारा ज्ञप्ति कराने में कुछ सहकारी हो जाने से इन्द्रिय और सन्निकर्ष को व्यवहार से प्रमाण कह दिया जाता है, अन्यथा नहीं। तब तो यह बात सिद्ध है, कि ज्ञान ही प्रमाण है। अर्थात् ज्ञान ही हित प्राप्ति और अहित परिहार कराने में समर्थ हो सकता है।