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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 45 तदध्यवसायस्य मिथ्यात्वसमनंतरप्रत्ययेन कुतश्चित् सिते शंखे पीताकारज्ञानजनिताकारज्ञानस्य तज्जन्मादिरूपसद्भावेपि तत्र प्रमाणत्वाभावादिति कुतो न संमतं / सत्यपि सन्निकर्षेऽर्थाधिगतेरभावान्न प्रमाणमिति चेत् - सन्निकर्षे यथा सत्यप्याधिगतिशून्यता। सारूप्येपि तथा सेष्टा क्षणभंगादिषु स्वयम् // 35 // यथा चक्षुरादेराकाशादिभिः सत्यपि संयोगादौ सन्निकर्षे तदधिगतेरभावस्तथा क्षणक्षयस्वर्गप्रापणशक्त्यादिभिर्दानादिसंवेदनस्य सत्यपि सारूप्ये तदधिगतेः शून्यता स्वयमिष्टैव भावार्थ : बौद्ध यदि कहे कि हम तदुत्पत्ति को ज्ञान द्वारा नियत व्यवस्था करने में नियामक मानते हैं। अर्थात् जो ज्ञान जिस पदार्थ से उत्पन्न होगा उसी को जानेगा, अन्य को नहीं क्योंकि ज्ञान अपने उत्पादक कारणरूप विषय को जानता है। "नाकारणं विषयः" जो ज्ञान का कारण नहीं है वह ज्ञान का विषय नहीं है। परन्तु इस कथन में तदुत्पत्ति से इन्द्रियों के साथ व्यभिचार आता है। क्योंकि इन्द्रिय आदि से व्यभिचार हो जाने के कारण तदुत्पत्ति को नियम कराने का अयोग है। तदध्यवसाय ज्ञान के भी नियत पदार्थों की व्यवस्था करने में नियामकपना नहीं है क्योंकि शुक्ल शंख में किसी कारणवश कामलरोग वाले पुरुष को प्रथम ही 'पीला शंख है' ऐसा मिथ्याज्ञान हुआ, उसके अनन्तर ही ज्ञान से उत्पन्न हुआ दूसरा ज्ञान हुआ, जो कि पहले ज्ञान से उत्पन्न है। पहिले ज्ञान का आकार भी उसमें है तथा पहिले ज्ञान का अध्यवसाय करने वाला भी है। अत: पहिले पीत आकार को जानने वाले ज्ञान से उत्पन्न हुए दूसरे पीत आकार वाले ज्ञान के तदुत्पत्ति, तदाकारता और तदध्यवसाय स्वरूप के विद्यमान होने पर भी उसमें प्रमाणता का अभाव है। अतः तदध्यवसाय का मिथ्याज्ञान के पीछे होने वाले ज्ञान से व्यभिचार है। इसलिए वह सम्मत कैसे नहीं है। अर्थात् सन्निकर्ष प्रमाण क्यों नहीं है? . शंका : सन्निकर्ष प्रमाण नहीं है, क्योंकि सन्निकर्ष के होने पर भी अर्थ के ज्ञान का अभाव पाया जाता है।.. . समाधान : जिस प्रकार सन्निकर्ष के होते हुए भी अर्थज्ञप्ति की शून्यता देखी जाती है, उसी प्रकार क्षणिकत्व आदि में तदाकारता होते हुए भी अर्थज्ञप्ति का अभाव स्वयं बौद्धों ने अभीष्ट किया है। अर्थात्जैसे वैशेषिकों द्वारा माने गये सन्निकर्ष अन्वयव्यभिचार सहित होने से प्रमा का कारण नहीं हैं वैसे ही सारूप्य में भी अन्वयव्यभिचार आता है क्योंकि स्वलक्षण वस्तु का क्षणिकपना तदात्मक स्वरूप है अत: स्वलक्षण से उत्पन्न हुए ज्ञान में जब स्वलक्षण का आकार पड़ गया है, तो उससे अभिन्न क्षणिकपने का भी आकार पड़ चुका हैं। ऐसी दशा में क्षणिकपन का आकार होते हुए भी निर्विकल्पक ज्ञान द्वारा क्षणिकत्व की अधिगति होना बौद्धों ने स्वयं नहीं माना है॥३५॥ - जिस प्रकार चक्षु आदि इन्द्रियों का आकाश, आत्मा आदि द्रव्यों के साथ संयोग सन्निकर्ष विद्यमान होने पर भी उन आकाश, आदि की अधिगति होने का अभाव है। अर्थात् चक्षु आदि से उनका ज्ञान नहीं होता है। उसी प्रकार स्वलक्षण या दाता के दान आदि को जानने वाले ज्ञान का क्षणिकत्व, स्वर्गप्रापणशक्ति,
SR No.004286
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages438
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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