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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक*३९७ वाग्विज्ञानांवृतिच्छेदविशेषोपहितात्मनः / वक्तुः शक्तिः पुनः सूक्ष्मा भाववागभिधीयताम् // 110 // तया विना प्रवर्तते न वाचः कस्यचित्क्वचित् / सर्वज्ञस्याप्यनंताया ज्ञानशक्तेस्तदुद्भवः॥१११॥ इति चिद्रूपसामान्यात्सर्वात्मव्यापिनी न तु। विशेषात्मतयेत्युक्ता मति: प्राङ्नामयोजनात् // 112 // शब्दानुयोजनादेव श्रुतमेवं न बाध्यते। ज्ञानशब्दाद्विना तस्य शक्तिरूपादसंभवात् // 113 // लब्ध्यक्षरस्य विज्ञानं नित्योद्घाटनविग्रहं। श्रुताज्ञानेपि हि प्रोक्तं तत्र सर्वजघन्यके॥११४॥ स्पर्शनेंद्रियमात्रोत्थे मत्यज्ञाननिमित्तकं। ततोक्षरादिविज्ञानं श्रुते सर्वत्र संमतम् // 115 // नाकलंकवचोबाधा संभवत्यत्र जातुचित् / तादृशः संप्रदायस्याविच्छेदाधुक्त्यनुग्रहात् // 116 // ___ भाववाक् का दूसरा भेद शक्ति भाववाक् है। वचनों से जन्य शाब्दबोध ज्ञान को आवरण करने वाले कर्मों के विशेष क्षयोपशम से उपहतं (युक्त) वक्ता आत्मा की जो शक्ति है, वह शक्तिस्वरूप भाववाक् शब्दाद्वैतवादियों के द्वारा सूक्ष्मावाणी कही जाती है। क्योंकि, उस शक्तिरूप सूक्ष्मावाणी के बिना किसी भी जीव के कहीं भी वचन की प्रवृत्ति नहीं होती है। सर्वज्ञ भगवान के भी अनन्तज्ञान, शक्ति या वीर्य शक्ति के होने से ही उस द्वादशांग वाणी की उत्पत्ति मानी गयी है। अर्थात् : प्रतिपक्षी कर्मों के क्षयोपशम या क्षय के हो जाने पर प्रमेयों का वाचन कराने के लिए या शब्दों को यथायोग्य बनाने के लिए उत्पन्न हुई पुरुषार्थ शक्ति ही शब्दों की जननी है। उसको सूक्ष्मा कहने में कोई क्षति नहीं है। इस प्रकार सामान्य चैतन्यस्वरूप की अपेक्षा से उस शक्तिरूप सूक्ष्मावाणी को सम्पूर्णभाषाभाषी आत्माओं में व्यापक मान सकते हैं। किन्तु विशेष विशेषस्वरूप से सर्वव्यापक नहीं है। इस प्रकार नाम योजना से पहिले स्मृति आदि ज्ञान मतिज्ञानस्वरूप कहे गये हैं। सभी ज्ञानों में नाम का संसर्ग अनिवार्य नहीं है। अतः शब्द की पीछे योजना कर देने से ही श्रुत होता है, इस प्रकार का नियम भी उक्त अपेक्षा लगाने पर बाधित नहीं होता है। कारण कि शक्तिस्वरूप ज्ञान वाणी के बिना उस परार्थश्रुत की उत्पत्ति असम्भव है॥११०-१११-११२-११३॥ ___यह जघन्य श्रुतज्ञान नित्य उद्घाटित शरीर वाला है। यानी इसके ऊपर कोई आवरण करने वाला कर्म नहीं है। जघन्य ज्ञान आवरण रहित है। इसके ऊपर के श्रुतभेदों को पर्यायावरण, पर्यायसमासावरण आदि कर्म ढकते हैं। अतः लब्ध्यक्षर ज्ञानजीव के नित्य प्रकाशमान जघन्य विज्ञान है। सर्वज्ञानों में जघन्य कुश्रुतज्ञान में भी पूर्व में कहा गया शक्तिरूप श्रुत अवश्य विद्यमान है। सूक्ष्मनिगोदिया जीव के केवल स्पर्शन .' इन्द्रिय से उत्पन्न हुए मत्यज्ञान को निमित्तकारण मानकर जघन्यज्ञान होता है। ____इससे सिद्ध होता है कि अक्षर, अक्षरसमास, पद, पदसमास आदि विज्ञान भी सामान्य चिद्रूप करके व्याप्त हैं। सम्पूर्ण श्रुतों में ज्ञानस्वरूप शब्द की अनुयोजना करना हमको सम्मत है। भावार्थ : सर्व ज्ञानों में उत्कृष्ट केवलज्ञान है और सम्पूर्ण ज्ञानों में छोटा ज्ञान सूक्ष्म निगोदिया का जघन्य ज्ञान है। सूक्ष्मनिगोदिया लब्ध्यपर्याप्तक जीव अपने सम्भवनीय छह हजार बारह जन्मों में भ्रमण करता हुआ, अन्त के जन्म में यदि तीन मोड़ावाली गोमूत्रिका गति से मरे तब प्रथम मोड़ा के समय में सर्व
SR No.004286
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages438
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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