________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 395 मायेयं बत दुःपारा विपश्चिदिति पश्यति। येनाविद्या विनिर्णीता विद्यां गमयति ध्रुवम् // 103 // भ्रांते/जाविनाभावादनुमात्रैवमागता। ततो नैव परं ब्रह्मास्त्यनादिनिधनात्मकम् // 104 // विवर्तेतार्थभावेन प्रक्रिया जगतो यतः। भ्रान्तिबीजमनुस्मृत्य विद्यां जनयति स्वयं // 105 // न हि भ्रांतिरियमखिलभेदप्रतीतिरित्यनिश्चये तदन्यथानुपपत्त्या तद्वीजभूतं शब्दतत्त्वमनादिनिधनं ब्रह्म सिद्ध्यति। नापि तदसिद्धौ भेदप्रतीतिभ्रांतिरिति परस्पराश्रयणात्कथमिदमवतिष्ठते “अनादिनिधनं ब्रह्म शब्दतत्त्वं शब्द अद्वैतवादी कहते हैं कि वस्तत: जल के समान शब्दब्रह्म एक है। उसके अनेक बबलों के समान भेद के द्वारा जीवों को असत्य प्रतिभास हो रहा है। बड़ा खेद है जिसका जानना बहुत कठिन है ऐसी यह माया का प्रभाव है। विद्वान जन वास्तविक तत्त्व को देख लेते हैं जिससे कि विशेष रूप से निर्णीत अविद्या उस विद्या का दृढ़ रूप से ज्ञापन करा देती है, क्योंकि बिना भित्ति के भ्रान्तज्ञान उत्पन्न नहीं होता है अत: सब मिथ्याज्ञान, सम्यग्ज्ञानों का बीजभूत शब्दब्रह्म है। जैनाचार्य प्रत्युत्तर देते हैं कि भ्रान्तियों का बीज के साथ अविनाभाव मानने से तो (इस प्रकार यहाँ) अनुमान प्रमाण ही आ गया और ऐसा होने पर हेतु, पक्ष दृष्टान्त आदि को मान लेने से द्वैत हो जाता है। बीजभूत ब्रह्म और नैमित्तिक अविद्यायें मानी गई है। इससे भी द्वैत सिद्ध होता है, अद्वैत नहीं अत: अनादि, अनन्तस्वरूप शब्द परब्रह्म कैसे भी सिद्ध नहीं हो पाता है, जिससे कि तुम्हारा यह कहना शोभनीय हो कि वह शब्दब्रह्म ही घट, पट आदि अर्थ परिणामों करके पर्यायों को धारण करता है। इस प्रकार जगत् की प्रक्रिया चलती है। वह शब्दब्रह्म ही भ्रान्ति के निमित्त कारणों का अनुसरण कर स्मरण किया जाकर पश्चात् स्वयं विद्या को उत्पन्न कर देता है। यह अद्वैतवादियों का कथन द्वैत के सिद्ध होने पर ही युक्त होता है, अन्यथा नहीं // 102-103-104-105 // घट, पट आदि सम्पूर्ण भेदों को प्रकाशित करने वाली यह प्रतीति भ्रान्तिस्वरूप है। इस प्रकार जब तक निश्चय नहीं होगा, तब तक उस भ्रान्ति की अन्यथा अनुपपत्ति के द्वारा उसका बीजभूत अनादि, अनन्त, व्यापक, शब्दब्रह्म तत्त्व सिद्ध नहीं हो सकता है। तथा जब तक अद्वैत शब्दब्रह्म की सिद्धि नहीं होगी, तब तक घट आदि की भेद प्रतीति भी भ्रान्तिरूप सिद्ध नहीं हो सकती। इस प्रकार परस्पराश्रय दोष हो जाने से यह वक्ष्यमाण अद्वैतवादियों का ग्रन्थ कैसे व्यवस्थित हो सकता है कि शब्दतत्त्वस्वरूप परमब्रह्म अनादिकाल से चला आया हुआ अनन्तकाल तक अक्षीण होता हुआ प्रवर्तता रहेगा। घट, पट आदि अर्थ स्वरूप से वह शब्दब्रह्म ही परिणमता है। जिन परिणामों से गृह, कलश, पुस्तक, बाल, वृद्ध, स्वर्ग, नरक आदि भेदरूप जगत् की प्रक्रिया बनती है। भावार्थ : भेदप्रतीतियों के भ्रमरूप सिद्ध हो जाने पर शब्दाद्वैत सिद्ध हो और अद्वैत के सिद्ध हो जाने पर भेदप्रतीति भ्रमस्वरूप सिद्ध हो। इस प्रकार इतरेतराश्रय दोष हो जाने से अद्वैतवादियों के मन्तव्यानुसार शब्दब्रह्म का नित्यपना और दृश्य जगत् स्वरूप से उसका परिणाम होना सिद्ध नहीं हो पाता है; जिससे कि उस शब्दब्रह्म की वैखरी, मध्यमा, पश्यन्ती, सूक्ष्मा ये चार सद्प अथवा असप अवस्थाएँ सम्भव हो सके। यानी शब्दब्रह्म के सिद्ध नहीं होने पर उसकी अवस्थाएँ आकाश पुष्प की सुगन्धियों समान सिद्ध नहीं