________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 393 तदुत्पादनशक्तिरूपा सूक्ष्मा वाक् व्यापिनी सततं प्रकाशमानाभ्युपगंतव्या। सैवानुपरिहरत्यभिधानाद्यपेक्षायां भवेदन्योन्यसंश्रय इति दूषणं "अभिलापतदंशानामभिलापविवेकतः। अप्रमाणप्रमेयत्वमवश्यमनुषज्यते" इत्यनवस्थानं च अभिलापस्य तद्भागानां वा पराभिलापेन वैखरीरूपेण मध्यमारूपेण च विनिर्बाधसंवेदनोत्पत्तेरप्रमाणप्रमेयत्वानुषंगाभावादिति ये समादधते तेप्यनालोचितोक्तय एव, निरंशशब्दब्रह्मणि तथा वक्तुमशक्तेः। तस्यावस्थानां चतसृणां सत्यत्वेऽद्वैतविरोधात् / तासामविद्यात्वाददोष इति चेन्न, शब्दब्रह्मणोनंशस्य विद्यात्वसिद्धौ तदवस्थानामविद्यात्वाप्रसिद्धः। तद्धि शब्दब्रह्म निरंशमिंद्रियप्रत्यक्षादनुमानात्स्वसंवेदनप्रत्यक्षादागमाद्वा न प्रसिद्ध्यतीत्याह यदि वह सूक्ष्मा वाणी भी वाचक शब्द संकेत आदि की अपेक्षा करती है तो अन्योन्याश्रय दोष आता है अतः सूक्ष्मा वाणी में शब्द योजना संकेत आदि की अपेक्षा नहीं है। तथा वाचक देवदत्त शब्द और उसके दकार, एकार, वकार आदि अंशों के वाचक पुनः अन्य शब्दों का विचार करने से अवश्य ही अप्रमाणत्व और अप्रमेयत्व का प्रसंग आएगा। ____ भावार्थ : यदि सभी वाचक शब्द और ज्ञायक ज्ञानों में शब्द का अनुविद्धपना माना जाएगा तो विशिष्ट मनुष्य का वाचक देवदत्त शब्द में स्थित दे, व, आदि के वाचक शब्द भी शब्दान्तर की अपेक्षा करेंगे अतिप्रसंग और अनवस्था दोष आएगा अतः प्रमेय के ज्ञापक ज्ञान और उससे अनविद्ध शब्द तथा शब्दों के वाचक भी अन्य शब्द एवं अन्य शब्दों के भी वाचक और अन्य शब्दों के भी अंशों को कहने वाले शब्दान्तरों का विचार करने पर जगत् में न कोई प्रमाण व्यवस्थित हो सकता है और न किसी प्रमेय की सिद्धि हो सकती है, परन्तु, शब्दाद्वैतवादियों के अनवस्था दोष नहीं आ सकता क्योंकि वाचक शब्द और उसके वर्ण, मात्र स्वरूप अंशों का कथन करने वाले शब्दान्तरों तथा वैखरी, मध्यमास्वरूप वाचक शब्दों के द्वारा सर्वथा बाधा रहित संवेदन उत्पन्न होता है अत: अप्रमाणत्व और अप्रमेयत्व का प्रसंग नहीं आता है। वैखरी, मध्यमा आदि स्थूल वाणियों के लिए ही वाचकों की आवश्यकता है परन्तु सूक्ष्मा वाणी के लिए पद, मात्रा आदि वाचक शब्दों की आवश्यकता नहीं है। इस प्रकार शब्दाद्वैतवादी समाधान करते हैं। जैनाचार्य कहते हैं कि उनका यह समाधान भी बिना विचार का कथन है। अर्थात् उनके इन कथनों में कोई तथ्य नहीं है क्योंकि निरंश अखण्ड शब्द ब्रह्म में वैखरी, मध्यमा, पश्यन्ती और सूक्ष्मा रूप चार भेद करना शक्य नहीं है। शब्दाद्वैतवादियों के शब्दब्रह्म में यदि मध्यमा, वैखरी आदि चार अवस्थायें सत्य हैं, तब तो शब्दाद्वैत का विरोध होता है - अर्थात् शब्द अद्वैत न रहकर द्वैत हो जाता है। “शब्द ब्रह्म तो निरंश अखण्ड रूप ही है, अविद्या के कारण चार अवस्था रूप प्रतीत होता है, वास्तविक नहीं है। अत: हमारा कथन निर्दोष है।" ऐसा कहना भी उचित नहीं है, क्योंकि निरंश शब्द ब्रह्म के समीचीन विद्या के सिद्ध हो जाने पर उस अवस्था में शब्द ब्रह्म के अविद्यापन की अप्रसिद्धि ही है अर्थात् विद्यावान ब्रह्म की पर्याय विद्या रूप ही होती है, अविद्या रूप नहीं। . शब्दाद्वैतवादियों के द्वारा स्वीकृत निरंश शब्द ब्रह्म इन्द्रिय प्रत्यक्ष, अनुमान, स्वसंवेदन प्रत्यक्ष और आगम प्रमाण से प्रसिद्ध नहीं है। इसी बात को आचार्य कहते हैं -