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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 391 वैखरी मध्यमां वाचं विनाक्षज्ञानमात्मनः / स्वसंवेदनमिष्टं नोन्योन्याश्रयणमन्यथा // 11 // पश्यंत्या तु विना नैतद्व्यवसायात्मवेदनम् / युक्तं न चात्र संभाव्यः प्रोक्तोन्योन्यसमाश्रयः // 12 // व्यापिन्या सूक्ष्मया वाचा व्याप्तं सर्वं च वेदनं / तया विना हि पश्यंती विकल्पात्मा कुतः पुनः॥१३॥ मध्यमा तदभावे क्व निर्बीजा वैखरी रवात् / ततः सा शाश्वती सर्ववेदनेषु प्रकाशते // 14 // इति येपि समादध्युस्तेप्यनालोचितोक्तयः। शब्दब्रह्मणि निर्भागे तथा वक्तुमशक्तितः // 15 // न ह्यवस्थाश्चतस्रोस्य सत्याद्वैतप्रसंगतः। न च तासामविद्यात्वं तत्त्वासिद्धौ प्रसिद्ध्यति // 16 // का संसर्ग नहीं होता है वे अपने स्वरूप से अवाच्य होकर प्रतिष्ठित हैं। अर्थात् मतिज्ञान, अवधिज्ञान, मन:पर्यय ज्ञान और केवल ज्ञान स्वार्थ हैं अपने स्वरूप का अनुभव करते हैं, दूसरों को समझाने की उनमें सामर्थ्य नहीं है, परन्तु श्रुतज्ञान परार्थ और स्वार्थ दोनों प्रकार का है, वचनात्मक परार्थ है अतः मतिज्ञान शब्दात्मक नहीं, वचनात्मक श्रुत ज्ञान ही है। इस अवसर पर शब्दाद्वैतवादी विद्वानों का अज्ञपना दिखलाकर उनको दोषयुक्त करते हुए आचार्य कहते हैं - शब्दाद्वैतवादी का कथनः वैखरी और मध्यमा नामक दो वाणियों के बिना इन्द्रियजन्य ज्ञान हमको इष्ट है और आत्मा का स्वसंवेदन प्रत्यक्ष भी वैखरी और मध्यमावाणी की शब्दयोजना के बिना ही हमने स्वीकार किया है अत: पूर्व में दिया गया अन्योन्याश्रय दोष हमारे ऊपर लागू नहीं हो सकता। अन्यथा पश्यन्ती नामक वाणी के बिना इन्द्रियजन्य मतिज्ञान और आत्मा का स्वसंवेदन प्रत्यक्ष यह निश्चयात्मक ज्ञान होना युक्त नहीं है। इस पश्यन्ती वाणी से इन्द्रियजन्य ज्ञान और आत्मज्ञान को अनुविद्ध मानने पर ही अन्योन्याश्रय दोष संभव नहीं है।९१-९२॥ ___ ज्योतिस्वरूप होकर सबके अन्तरंग में प्रकाशित नित्य, व्यापक, सूक्ष्मा नामकी वाणी के द्वारा सम्पूर्ण ज्ञान ही व्याप्त हो रहे हैं क्योंकि, उस सूक्ष्मा के बिना विकल्पस्वरूप पश्यन्ती वाणी भी कैसे हो सकती है? और उस पश्यन्ती वाणी के अभाव में पुन: वह बीज रहित मध्यमावाणी भी कैसे हो सकती है? और मध्यमा शब्द के बिना वैखरी कहाँ टिक सकती है? निमित्त बिना नैमित्तिक कार्य नहीं हो सकते अतः वह सर्व वाणियों की आद्यजननी सनातन, नित्य, सूक्ष्मा वाणी सम्पूर्ण ज्ञानों में प्रकाशित रहती है अतः इन्द्रिय अनिन्द्रिय ज्ञानों में जो भी कुछ प्रकाश दिख रहा है, वह सब सूक्ष्मावाणीरूप है॥९३-९४ / / जैनाचार्य इसका प्रत्युत्तर देते हैं कि उक्त प्रकार से जो भी कोई शब्दाद्वैतवादी समाधान करते हैं, वह भी सब अविचारित (कथन) है, क्योंकि भागरहित, निरंश, अखण्ड शब्द ब्रह्म में चार भेद कर कथन करना शक्य नहीं है। अर्थात् निरंश शब्द ब्रह्म की भिन्न-भिन्न चार अवस्थायें सत्य नहीं हैं क्योंकि चार अवस्थाओं को सत्य मानने पर तो द्वैत का प्रसंग आता है तथा उन चार अवस्थाओं का अविद्यापना भी शब्दब्रह्म के परमार्थरूप से अस्तित्व की सिद्धि नहीं होने से प्रसिद्ध नहीं हो सकता है।९५-९६॥
SR No.004286
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages438
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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