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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 385 तन्नो न पौरुषेयत्वं भवतस्तत्र तादृशं / मंत्रार्थवादनिष्ठस्यापौरुषेयस्य बाधनात् // 75 // वेदस्यापि पयोदादिध्वने!ष्फल्यदर्शनात् / सत्यं श्रुतं सुनिर्णीतासंभवद्बाधकत्वतः // 76 // प्रत्यक्षादिवदित्येतत्सम्यक् प्रामाण्यसाधनं / कदाचित्स्यादप्रमाणं शुक्तौ रजतबोधवत् // 77 / / नापेक्षं संभवद्बाधं देशकालनरांतरं / स्वेष्टज्ञानवदित्यस्य नानैकांतिकता स्थितिः॥७८॥ है अतः हमारे और आपके यहाँ एक समान दूषितकारणजन्य या बाधा सहित पौरुषेयपना समीचीन श्रुत में नहीं माना जाता है परन्तु जिसका वक्ता निर्दोष है उसके अदुष्ट कारणजन्यत्व, अपूर्वार्थत्व, बाधावर्जितत्व उस सदागम में घटित हो जाते हैं।७३-७४ // __कर्म प्रतिपादक मंत्र और अर्थवाद में निष्ठा रखने वाले अपौरुषेय के प्रमाण से बाधा आती है। अर्थात् वे अपौरुषेय होते हुए भी बाधा रहित नहीं होने के कारण तुम्हारे यहाँ प्रमाण तथा अपौरुषेयपना किसी भी प्रमाण का साधक नहीं है। चोरी, व्यभिचार आदि कुकर्मों के उपदेश या गाली, कुवचन आदि भी दुष्टसम्प्रदाय अनुसार काल से चले आ रहे हैं। एतावता ही उनमें प्रामाण्य नहीं आ जाता है। जैसे कि बादलों का गर्जना, बिजली का कड़कना, समुद्र का पुत्कार करना इत्यादि ध्वनियों का निष्फलपना देखा जाता है, उसी प्रकार अपौरुषेय वेद को भी निष्फलपना प्राप्त है। तथा अकृत्रिमपना, प्राचीनता अथवा अर्वाचीनता कोई समीचीनता के प्रयोजक नहीं हैं।॥७५॥ अतः यहाँ तक यह सिद्धान्त सिद्ध हुआ कि शब्दात्मक या ज्ञानात्मक श्रुत सत्य है-बाधकों के असम्भव होने का निर्णय होने से प्रत्यक्ष, अनुमान आदि के समान / इस प्रकार यह प्रमाणपने का साधन समीचीन है। अर्थात् शास्त्रों की समीचीनता को साधने के लिए बाधकों के असम्भव का निर्णय होना रूप हेतु निर्दोष है। कभी-कभी झूठे शास्त्र अप्रमाण भी हो जाते हैं। जैसे कि सीप में चाँदी का ज्ञान अप्रमाण है। जो श्रुत प्रमाण नहीं है, उसमें बाधकों का उत्थान हो जाता है। जैसे कि सीप में हुए चाँदी के ज्ञान में “यह चाँदी नहीं है" - इस प्रकार का बाधक प्रमाण स्थित है।।७६-७७॥ __मीमांसकों के अपने अभीष्ट प्रत्यक्ष आदि ज्ञानों में जैसे बाधकों की सम्भावना नहीं है, उसी प्रकार समीचीन श्रुत में, देशान्तर में या दूसरे कालों में, अथवा अन्य पुरुषों द्वारा बाधायें होने की अपेक्षा नहीं है। अर्थात् आधुनिक ऐहिक पुरुषों के समान देशान्तर, कालान्तर के मनुष्य भी एकसी प्रमाणपन, अप्रमाणपन की व्यवस्था करते हैं। अतः समीचीन श्रुत तो सभी देश, सम्पूर्ण काल और अखिल व्यक्तियों की अपेक्षा से बाधारहित है अतः सुनिश्चितासम्भवद्वाधकपन इस हेतु के व्यभिचारीपन (अनैकान्तिक हेत्वाभास) की व्यवस्थिति नहीं हो सकती है॥७८॥ अव्यक्त (अविशद) रूप से अर्थ को कहने वाले वचनों से उत्पन्न हुए श्रुतज्ञान की प्रत्यक्ष प्रमाणों द्वारा बाधा का अभाव होने से समीचीन शास्त्र द्वारा कहे गये अनेकान्त में किसी काल में भी प्रत्यक्ष प्रमाणों से बाधा उपस्थिति का अभाव होने से यह असम्भव बाधक हेतु असिद्ध हेत्वाभास भी नहीं है। अनुमान
SR No.004286
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages438
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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