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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 379 बहुकर्तृकतासिद्धेः खंडशस्तादृगन्यवत् / कर्तुरस्मरणं हेतुर्याज्ञिकानां यदीष्यते // 39 // तदा स्वगृहमान्या स्याद्वेदस्यापौरुषेयता। जगतोऽकर्तृताप्येवं परेषामिति चेन्न वै॥४०॥ कर्तुः स्मरणहेतुस्तत्सिद्धौ तैश्च प्रयुज्यते। महत्त्वं तु न वेदस्य प्रतिवाद्यागमात् स्थितम् // 41 // येनाशक्यक्रियत्वस्य साधनं तत्तव स्मृतिः। पुरुषार्थोपयोगित्वं विवादाध्यासितं कथं // 42 // विशेषणतया हेतोः प्रयोक्तुं युज्यते सतां / वेदाध्ययनवाच्यत्वं वेदाध्ययनपूर्वताम् // 43 // न वेदाध्ययने शक्तं प्रज्ञापयितुमन्यवत् / यथा हिरण्यगर्भः सोऽध्येता वेदस्य साध्यते // 44 // युगादौ प्रथमस्तद्बुद्धादिः स्वागमस्य च। साक्षात्कृत्यागमस्यार्थवक्ता कर्तागमस्य चेत् // 45 / / इस प्रकार दूसरे वैशेषिक, नैयायिक, यौगों के यहाँ जगत् का अकर्तृकपना भी बन जाएगा, जो कि उनको निश्चय से इष्ट नहीं हो सकता है। कारण कि उस जगत्-कर्ता, ईश्वर की सिद्धि करने में उन वैशेषिक आदि के द्वारा कर्ता का स्मरण होना ज्ञापक हेतु प्रयुक्त किया जाता है। मीमांसक वैशेषिकों के जगत्कर्ता के स्मरण को मानते ही नहीं हैं॥३८-३९-४०॥ मीमांसक कहते हैं कि वेद बहुत बड़ा ग्रन्थ है। कोई भी विद्वान् इतने महान् ग्रन्थ को बना नहीं सकता है। इसके प्रत्युत्तर में जैन कहते हैं कि वेदों का बड़प्पन तो जैन, बौद्ध आदि प्रतिवादियों के आगम से प्रतिष्ठित नहीं हो रहा है, जिससे कि नहीं किया जा सकनापन उस हेतु की तुम्हारे यहाँ स्मृति ठीक मानी जा सके। .. वेद के नित्यत्व को सिद्ध करने के लिए दिये गये हेतु का अपौरुषेय विशेषण सम्पूर्ण पुरुषों के प्रयोजन साधने में उपयोगी है। आचार्य कहते हैं कि वह विशेषण तो विवादग्रस्त है अत: हेतु का विशेषणस्वरूप हो करके प्रयुक्त करने के लिए सज्जन पुरुषों के सम्मुख किस प्रकार युक्त हो सकता है? // 42 // ... मीमांसक अनुमान के द्वारा इस बात को सिद्ध करते हैं कि सर्व वेदों का पढ़ना सदा से हो गुरुओं के अध्ययनपूर्वक ही चला आ रहा है क्योंकि उदात्त, अनुदात्त, स्वरित आदि से सहित होकर वैदिक मन्त्रों का उच्चारणपूर्वक अध्ययन गुरुवर्य के शब्दों से ही कहा जा सकता है - जैसे कि वर्तमान काल में परम्परा से चले आये गुरुओं से ही वेद का अध्ययन हो रहा है अतः वैदिक शब्द अनादि अनिधन है। इस प्रकार मीमांसकों के कहने पर हम जैन कहते हैं कि वेदाध्ययन वाच्यपना हेतु वेदाध्ययन पक्ष में वेदाध्ययन पूर्वकपने को समझाने के लिए समर्थ नहीं है, जैसे कि अन्य हेतु वेदाध्ययनपूर्वकपना साधने के लिए समर्थ नहीं है॥४३॥ जिस प्रकार मीमांसकों के द्वारा युग की आदि में वेद का सबसे प्रथम अध्ययन करने वाला ब्रह्मा सिद्ध किया है, उसी प्रकार बुद्ध, कपिल आदि भी युग की आदि में अपने-अपने आगम के अध्ययन करने वाले माने जा रहे हैं। यदि मीमांसक कहें कि बुद्ध आदि तो आगम के अर्थ का विशद प्रत्यक्ष कर उस अर्थ के वक्ता हैं अतः वे तो आगम के बनाने वाले कर्ता (उपचार से) कहे जाते हैं, किन्तु वेद के हमारे माने हुए वक्ताओं द्वारा अतीन्द्रिय अर्थों का प्रत्यक्ष नहीं हो पाता है अत: वेद के अध्येता या अध्यापक केवल
SR No.004286
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages438
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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