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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 364 चेत् शब्दस्यापि वक्तृ भेर्यादिद्रव्यतंत्रस्योपलब्धरस्वतंत्रत्वसिद्धरस्तु। तस्य तदभिव्यंजक ध्वनिनिबंधनत्वात्तंत्रत्वोपलब्धेरिति चेत् तर्हि वित्यादिद्रव्यस्यापि गंधादिव्यंजकवायुविशेषनिबंधनत्वात्तु गंधादेस्तंत्रत्वोपपत्ति : / शब्दस्य वक्तुरन्यत्रोपलब्धेर्न तंत्रत्वं सर्वदेति चेत् गंधादेरपि कस्तूरिकादिद्रव्यादन्यत्रोपलंभात्तत्परतंत्रत्वं सर्वदा माभूत्। ततोन्यत्रापि सूक्ष्मद्रव्याश्रिता गंधादयः प्रतीयते इति चेत् शब्दोपि ताल्वादिभ्योऽन्यत्र सूक्ष्मपुद्गलाश्रित एव श्रूयत इति कथमिव स्वतंत्रः / तदाश्रयद्रव्यस्य चक्षुषोपलब्धि: स्यादिति चेत् गंधाद्याश्रयस्य किं न स्यात्? सूक्ष्मत्वादिति चेत् तत एव शब्दाश्रय द्रव्यस्यापि उस शब्द की अभिव्यक्ति करने में ध्वनिरूप वायु को कारणपना होने से उस शब्द को वायु की पराधीनता की उपलब्धि है अतः वस्तुतः शब्द स्वतंत्र है। इस प्रकार मीमांसक के कहने पर जैनाचार्य कहते हैं कि पृथ्वी, जल, अग्नि आदि द्रव्यों को भी गन्ध, स्पर्श आदि के व्यंजक वायु विशेषों का कारणपना होने से गन्ध आदि को उन पृथ्वी आदि की. पराधीनता है। वास्तव में गन्ध, स्पर्श आदि सदा स्वतंत्र हैं। वक्ता के देश से अन्य देशों में भी वक्ता के शब्दों की उपलब्धि होने से शब्द परतंत्र नहीं है। इस प्रकार मीमांसकों के कहने पर तो गन्ध, स्पर्श आदि की भी कस्तूरी, अग्नि, इत्र आदि द्रव्यों के देश से अन्य देशों में उपलब्धि होती है अत: गन्ध आदि भी उन कस्तूरी आदि के सदा पराधीन नहीं है। ऐसी दशा होने पर गन्ध आदि में मुख्य महत्त्व आदि गुणों का अभाव साधने के लिए दिया गया अस्वतंत्रपना हेतु असिद्ध हो जाता है। उस गंधवाले या स्पर्शवान द्रव्य के क्षेत्र से अन्य स्थानों में भी फैले हुए सूक्ष्म द्रव्य के आश्रित गंध, स्पर्श आदि प्रतीत होते हैं। इस प्रकार मीमांसक के कहने पर स्याद्वादी कहते हैं कि ऐसे तो शब्द भी तालु, कण्ठ, मुख आदि से अन्य प्रदेशों में फैले हुए सूक्ष्म पुद्गलों के आश्रित सुने जाते हैं अतः शब्द स्वतंत्र कैसे कहे जा सकते हैं? अर्थात् - गन्ध के समान शब्द भी छोटे-छोटे पुद्गल स्कन्धों के आश्रित होकर दूर तक सुनाई पड़ते हैं, अन्यथा नहीं। उस शब्द के आश्रित पौद्गलिक द्रव्य की चक्षुइन्द्रिय के द्वारा उपलब्धि हो जानी चाहिए // अर्थात् जैसे पुद्गलनिर्मित घट आदि पदार्थ चक्षु से दीखते हैं, उसी प्रकार शब्दाश्रितपुद्गल भी आँखों से दीखना चाहिए। इस प्रकार मीमांसकों की शंका पर जैनाचार्य कहते हैं कि तब तो गंध आदि के आश्रित पृथ्वी आदि पदार्थों की भी चक्षु द्वारा उपलब्धि क्यों नहीं हो जाती है? अर्थात् - गन्ध वाले या रस वाले पदार्थ में रूप तो अवश्य है ही, फिर खुली इत्र की शीशी की दूर तक फैली हुई सुगन्ध का आश्रय पृथ्वी द्रव्य चक्षु से क्यों नहीं दीख जाता है? यदि मीमांसक कहे कि गन्ध के आश्रय द्रव्य सूक्ष्म है अतः स्थूलदर्शी जीव की चक्षु से उनकी ज्ञप्ति नहीं हो पाती है। तो जैनाचार्य भी कह सकते हैं कि शब्द के आश्रय पुद्गलद्रव्य भी सूक्ष्म होने के कारण चक्षु के द्वारा उपलब्ध नहीं होते हैं। इस प्रकार शब्द और गन्ध आदि में किए गए सभी आक्षेप और समाधान हमारे तुम्हारे यहाँ समान है, ऐसा हम देख रहे हैं। अत: यदि गन्ध आदिक के “सदा अस्वतंत्रपना" - इस ज्ञापक हेतु के द्वारा महत्त्व, ह्रस्वत्व आदि से सहितपने का अभाव सिद्ध किया जाता है तो गुण रहित हो जाने से उन गन्ध आदि को द्रव्यपना नहीं बन सकेगा।
SR No.004286
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages438
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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