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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 362 कल्पनानुषज्यमाना कथं निवारणीया ? गंधस्यैवं पृथिवीगुणत्वविरोध इति चेत् शब्दस्यापि पुद्गलत्वविरोधस्तथा परैः शब्दस्य द्रव्यांतरत्वेनाभ्युपगमाददोष इति चेत्तथा गंधोपि द्रव्यांतरमभ्युपगम्यतां प्रमाणबलायातस्य परिहर्तुमशक्ते : / स्पर्शादीनामप्येवं द्रव्यांतरत्वप्रसंग इति चेत् , तान्यपि द्रव्यांतराणि संतु / निर्गुणत्वात्तेषामद्रव्यत्वमिति चेत् , तत एव शब्दस्य द्रव्यत्वं माभूत् महत्त्वादिगुणाश्रयत्वात् शब्दे द्रव्यत्वमिति चेत्तत् एव गंधस्पर्शादीनां द्रव्यत्वमस्तु / तेषूपचरितमहत्त्वादय इति चेत् शब्देप्युपचरिताः संतु। कुतः शब्देन गन्ध को अमूर्त, व्यापक मानने पर तो गन्ध को पृथ्वी का गुणपना कहने का विरोध होगा। अर्थात् नैयायिकों ने गन्ध को पृथ्वी का गुण माना है अत: वे गन्ध को अमूर्त या व्यापक नहीं कह सकते हैं। मीमांसक के ऐसा कहने पर तो हम जैन कहेंगे कि इस प्रकार शब्द को भी अमूर्त व्यापक मानने पर पुद्गलपने का विरोध होगा। अर्थात् शब्द को पौद्गलिकपना जब हम जैनों के यहाँ सिद्ध हो चुका है, तो मीमांसक शब्द को अमूर्त और व्यापक कैसे मान सकेंगे? इस पर मीमांसक कहें कि इस प्रकार दूसरे विद्वानों ने यानी हम मीमांसकों ने शब्द को भिन्न द्रव्यपने से स्वीकार कर लिया है अतः वैशेषिकों के द्वारा पृथक् सिद्धान्त मान लेने पर हम पर दोष नहीं आता है। गन्ध को पृथ्वी का गुण या शब्द को आकाश का गुण मानने वाले वैशेषिकों के यहाँ भले ही कोई दोष आता हो, हमें क्या? इस प्रकार मीमांसक के कहने पर स्याद्वादी कह देते हैं कि इस प्रकार गन्ध भी एक भिन्न द्रव्य स्वीकार कर लिया जाए; उसमें कोई दोष नहीं आता है? प्रमाण की सामर्थ्य से आगत पदार्थ का परिहार केवल स्वेच्छापूर्वक निषेध कर देने से ही नहीं किया जा सकता है। इस पर मीमांसक यदि कहें कि ऐसा मानने पर स्पर्श, रस आदि को भी न्यारा-न्यारा द्रव्यपना हो जाने का प्रसंग आएगा। हम स्याद्वादी कहते हैं कि वे स्पर्श आदि भी न्यारे-न्यारे द्रव्य हो जाएँ; कोई क्षति नहीं है। अर्थात् गुण और द्रव्य का कथंचित् तादात्म्य है अतः द्रव्य के स्वरूप तो गुणों में भी लागू हो सकते हैं। पुद्गल के गुण भी मूर्त कहे जाते हैं। गुणों में पुनः दूसरे गुण नहीं रहते हैं अत: गुण रहित होने के कारण उन स्पर्श, रस आदि गुणों में द्रव्यपना घटित नहीं होता है, इस प्रकार मीमांसक के कहने पर जैनाचार्य कहते हैं कि उसी प्रकार शब्द को भी द्रव्यपना घटित नहीं हो सकता है। शब्द को भी तो वैशेषिकों ने रूप, रस आदि के समान आकाश का गुण माना है। अन्य गुणों का आधार नहीं होने से वह भी द्रव्य नहीं हो सकता है। यदि महत्त्व, स्थूलत्व आदि गुणों का आश्रयपना हो जाने से शब्दों में द्रव्यपना मानोगे तब तो उसी प्रकार गन्ध, स्पर्श आदि को भी द्रव्यपना होना चाहिए। मीमांसक कहते हैं कि उन गन्ध, उष्ण स्पर्श आदि में तो उपचार से प्राप्त महत्त्व, स्थूलत्व आदि गुण कल्पित कर लिये गये हैं। अर्थात् - वस्तुत: उष्णद्रव्य या गन्धद्रव्य ही महान् या स्थूल हैं, उनकी स्थूलता, महत्ता ही समवेतत्व या एकार्थसमवाय सम्बन्ध से गुण में आरोपित कर ली जाती है। तब तो जैनाचार्य कहते हैं कि शब्द में भी महत्त्व आदि गुण वस्तुत: नहीं मानने चाहिए, उपचार से आरोपित करना चाहिए।
SR No.004286
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages438
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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