SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 365
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 360 गंधाधिष्ठानभूतस्य द्रव्यप्राप्तस्य कस्यचित्। दूरत्वेन तथा वृत्तौ व्यवहारोत्र चेन्नृणाम् // 13 // समं शब्दे समाधानमिति यत्किंचनेदृशं / चोद्यं मीमांसकादीनामप्रातीतिकवादिनाम् / / 94 // कुट्यादिव्यवधानेपि शब्दस्य श्रवणाद्यदि। श्रोत्रमप्राप्यकारीष्टं तथा घ्राणं तथेष्यतां // 15 // द्रव्यांतरितगंधस्य घ्रातसूक्ष्मस्य तस्य चेत् / घ्राणप्राप्तस्य संवित्तिः श्रोत्रप्राप्तस्य नो ध्वनेः // 16 // . यथा गंधाणवः केचिच्छक्ताः कुट्यादिभेदने / सूक्ष्मास्तथैव नः सिद्धाः प्रमाणध्वनिपुद्गलाः // 17 // पुद्गलपरिणामः शब्दो बाडेंद्रियविषयत्वात् गंधादिवदित्यादि प्रमाणसिद्धाः शब्दपरिणतपुद्गलाः इत्यग्रे समर्थयिष्यामहे। ते च गंधपरिणतपुद्गलवत् कुट्यादिकं भित्वा स्वेंद्रियं प्राप्नुवंतः परिच्छेद्या इति न के ज्ञान की प्रवृत्ति हो जाती है, और वैसा होने पर मनुष्यों के इस गन्ध में दूरवर्ती गन्ध को जान लेने का व्यवहार हो जाता है। अर्थात् मूल प्रकृष्ट गन्धयुक्त द्रव्य की गन्ध से सुवासित पौद्गलिक पदार्थ का सम्बन्ध होने पर ही घ्राण इन्द्रिय सूंघती है। इस प्रकार कहने पर शब्द में भी वही समाधान सदृश है, क्योंकि प्रतीति के अनुसार नहीं कहने वाले मीमांसक, वैशेषिक आदि के द्वारा जो कोई भी प्रश्न उठाये जाएंगे, उनका समाधान गन्धद्रव्य के दृष्टान्त से कर दिया जाएगा अथवा श्रोत्र पर दिये गए शंका समाधान उसी के समान घ्राण इन्द्रिय पर भी लागू हो जाते हैं / / 93-94 // . भीति आदि के व्यवधान होने पर भी शब्द का श्रवण होता है अतः श्रोत्र को यदि अप्राप्यकारी इष्ट किया जाता है, तब तो उसी प्रकार नासिका इन्द्रिय को भी अप्राप्यकारी इष्ट कर लेना चाहिए अर्थात् भीति और प्रासाद पंक्तियों का व्यवधान होते हुए भी गंध सूंघ ली जाती है। भीति आदि से व्यवहित गन्धयुक्त सूक्ष्म द्रव्य का घ्राण के साथ सम्बन्ध होने से सम्वित्ति होती है अर्थात् जो सूंघे जा चुके हैं, वे गन्धद्रव्य के चारों ओर फैले हुए सूक्ष्म अंश ही हैं। कुछ भीति, छप्पर उनका व्यवधान नहीं कर सकते हैं। इस प्रकार तो हम स्याद्वादियों के यहाँ भी कर्णइन्द्रिय के साथ सम्बन्धित शब्द का ही श्रावणप्रत्यक्ष कहा जाता है। प्रथम ही दूर प्रदेश में उत्पन्न हुए शब्द की पौद्गलिक लहरें फैलती-फैलती कान के निकट आ जाती हैं अत: गन्ध अणुओं के समान सूक्ष्म शब्दपुद्गल भी प्रमाणों से सिद्ध हैं। गन्ध और शब्द पर शंका-समाधान एक सा है। जिस प्रकार कितनी ही गंध परमाणु भींत आदि को छेदने-भेदने में समर्थ है, उसी प्रकार हम स्याद्वादियों के यहाँ शब्दस्वरूप सूक्ष्म पुद्गल भी प्रमाणों से सिद्ध है।९५-९६-९७॥ शब्द पुद्गल का परिणाम है, गन्ध, रस आदि के समान बाह्य इन्द्रिय का विषय होने से; इत्यादि प्रमाणों से यह बात सिद्ध हो जाती है कि पुद्गल द्रव्य ही शब्द स्वरूप परिणत हुए हैं। इस सिद्धान्त को अग्रिम पाँचवें अध्याय में और भी विस्तार के साथ समर्थन करेंगे तथा वे सूक्ष्म शब्द पुद्गल पदार्थ तो गन्धस्वरूप परिणत पुद्गल द्रव्य के समान भीति आदि को भेदकर अपने को प्रत्यक्ष करने वाली कर्ण इन्द्रिय को प्राप्त होने पर ही जानने योग्य हैं। अतः अप्राप्त पुद्गलों का श्रोत्र इन्द्रिय से ग्रहण नहीं होता है।
SR No.004286
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages438
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy