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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 358 नि:प्रमाणकमुदाहरणमाश्रित्यायस्कांतस्य प्राप्यकारित्वं व्यवस्थापयन्कथं न स्वेच्छाकारी? तदागमात्सिद्धमिति चेन, तस्य प्रत्यागमेन सर्वत्र दृष्टेष्टाविरुद्धेन प्रमाणतामात्मसात्कुर्वता प्रतिहतत्वात् स्वयं युक्त्यननुगृहीतस्य प्रमाणत्वानभ्युपगमाच्च न ततस्तत्सिद्धिः यतोयस्कांतस्य प्राप्यकारित्वसिद्धौ तेनानैकांतिकत्वं भौतिकत्वस्य न स्यात्॥ तथैव करणत्वस्य मनसा व्यभिचारिता। मंत्रेण च भुजंगाधुच्चाटनादिकरेण वा // 8 // शब्दात्मनो हि मंत्रस्य प्राप्तिन भुजगादिना। मनागावर्तमानस्य दूरस्थेन प्रतीयते // 89 // को सूर्यमंडल की ओर गुरुत्वीय शक्ति के अनुसार खींच लेती हैं अत: उक्त प्रतिवादियों की ओर से दिये गए दृष्टान्त हमारे अप्राप्यकारीपन के अनुकूल ही पड़ते हैं, क्योंकि दूरवर्ती अप्राप्त पदार्थ का प्रतिबिम्ब दर्पण ले. लेता है तथैव चक्षु भी अयस्कांत पाषाण के समान अप्राप्यकारी है॥८७॥ अप्रामाणिक उदाहरणों का आश्रय लेकर अयस्कांत चुम्बक के प्राप्यकारीपन की व्यवस्था करने वाला वृद्ध वैशेषिक इच्छापूर्वक कार्य को करने वाला क्यों नहीं है? आगम से चुम्बक पाषाण का प्राप्यकारीपना सिद्ध है, ऐसा भी कहना उचित नहीं है क्योंकि, तुम्हारे अयुक्त के प्रतिकूल और प्रत्यक्ष, अनुमान आदि प्रमाणों से सर्वत्र अविरुद्ध होने के कारण प्रमाणपने को अपने अधीन करने वाले श्रेष्ठ आगम के द्वारा उस वैशेषिकों के आगम का पूर्व प्रकरण में प्रतिघात कर दिया गया है क्योंकि जो आगम स्वयं युक्तियों से अनुगृहीत नहीं है उसको प्रमाण स्वीकार नहीं किया है। __ अत: उन हर्ड, मुखवायु, सूर्यकिरण आदि दृष्टान्तों से उस चक्षु के प्राप्यकारीपन की सिद्धि नहीं हो पाती है, जिससे कि अयस्कांत का प्राप्यकारीपना सिद्ध हो जाने पर उस अयस्कांत के द्वारा भौतिकत्वहेतु का अनैकान्तिक हेत्वाभासपना नहीं हो सकता है। अर्थात् भौतिकत्व हेतु अयस्कांत करके व्यभिचारी है। सभी पौद्गलिक पदार्थ प्राप्त होकर ही आकर्षण आदि क्रियाओं को करते हैं, यह आग्रह प्रशस्त नहीं है। तीर्थंकर के जन्म कल्याणक के समय दूरवर्ती अनेक स्थानों पर घंटनाद, सिंहनाद, आसनकम्प आदि होने लग जाते हैं। ___ इसी प्रकार करणत्व हेतु का भी मन के द्वारा और सर्प आदि के उच्चाटन, निर्विषीकरण, वशीकरण आदि को करने वाले मंत्री के द्वारा व्यभिचारीपना आता है। अर्थात्-भौतिकत्व हेतु के समान करणत्व हेतु भी मन और मंत्र करके व्यभिचारी है।८८। थोड़ा सा भी परिवर्तन नहीं करने वाले शब्दस्वरूप मंत्र की दूरदेश में स्थित सर्प आदि के साथ प्राप्ति मानना भी प्रतीत नहीं हो रहा है // 89 // अर्थात् शब्द रूप मंत्र भुजंगादि को प्राप्त हुए बिना भी विष को दूर करने में समर्थ हैं। चक्षु दृश्यविषय के साथ सम्बन्ध कर उसका चाक्षुष प्रत्यक्ष कराने वाली है, छुरिका आदि के समान
SR No.004286
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages438
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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