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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 297 . क्रमादवग्रहहात्मद्रव्यपर्यायगोचरं। जीवस्यावृतिविच्छेदविशेषक्रमहेतुकम् // 60 // तत्समक्षेतरव्यक्तिशक्त्येकार्थवदेकदा। न विरुद्धं विचित्राभज्ञानवद्वा प्रतीतितः॥६१॥ प्रत्यक्षपरोक्षव्यक्तिशक्तिरूपमेकमर्थं विचित्राभासं ज्ञानं वा स्वयमविरुद्धं युगपदभ्युपगच्छत् क्रमतो द्रव्यपर्यायात्मकमर्थं परिच्छिंददवग्रहेहास्वभावभिन्नमेकं मतिज्ञानं विरुद्धमुद्भावयतीति कथं विशुद्धात्मा? तदशक्यविवेचनस्याविशेषात्। न ह्येकस्यात्मनो वर्णसंस्थानादिविशेषणद्रव्यतद्विशेष्यग्राहिणावग्रहेहाप्रत्ययौ स्वहेतुक्रमात्क्रमशो भवन्न वात्मांतरं नेतुं शक्यौ संतौ शक्यविवेचनौ न स्यातां चित्रज्ञानवत् तथा प्रतीतेरविशेषात् / कथं पुनरवायः स्यादित्याह; को प्रत्यक्ष माना है और वेद्य, वेदक, सम्वित्ति अंशों को परोक्ष माना है। तथा शुद्ध ज्ञान अद्वैतवादियों ने ज्ञान अंश की व्यक्ति मानी है, और वेद्य, वेदक, सम्वित्ति अंशों के विवेक की ज्ञान में शक्ति मानी है। सांख्यों ने भी प्रकृतिरूप एक अर्थ को एक ही समय शक्ति और व्यक्तिरूप माना है, एवं अनेक आकाररूप प्रतिभासों से युक्तज्ञान भी बौद्धों ने इष्ट किया है। इन दृष्टान्तों से अवग्रह, ईहा आदि को द्रव्यपर्यायस्वरूप अर्थ को ग्रहण करने वाला एक मतिज्ञानपना भी विरुद्ध नहीं है॥६०-६१॥ मीमांसक एक ही समय में एक ही पदार्थ व्यक्ति की अपेक्षा से प्रत्यक्षस्वरूप और उसी समय उसकी अतीन्द्रिय शक्तियों की अपेक्षा से परोक्षस्वरूप से स्वीकार करता है तथा बौद्ध स्वयं युगपत् नील, पीत आदिक विचित्र प्रतिभास वाले एक चित्रज्ञान को अविरुद्ध रूप से स्वीकार करते हैं, किन्तु द्रव्य और पर्यायस्वरूप अर्थ को क्रम से जानने वाले तथा अवग्रह, ईहारूप स्वभावों से भेदभाव को प्राप्त मतिज्ञान को एक मानने में विरोध दोष का उद्भाव करते हैं। इस प्रकार पक्षपातग्रस्त प्रतिवादी विशुद्ध आत्मा वाला कैसे कहा जा सकता है? जिस प्रकार भिन्न-भिन्न, पृथक् करने की अशक्यता चित्रज्ञान आदि पदार्थों में है, वैसे ही अशक्यविवेचना अवग्रह, ईहा स्वभाव वाले मतिज्ञान में भी है। इन दोनों में कोई विशेषता नहीं है। एक ही आत्मा के अपने-अपने हेतुओं के क्रमानुसार क्रम-क्रम से होने वाले और वर्ण, संस्थान आदि विशेषणरूप पर्याय और उन पर्यायों से सहित विशेष्य द्रव्य को ग्रहण करने वाले अवग्रह ईहा स्वरूप दो ज्ञान अन्य आत्माओं में प्राप्त कराने के लिए शक्य नहीं है। एक आत्मा के एक मतिज्ञानस्वरूप अवग्रह, ईहा ज्ञान चित्रज्ञान के समान पृथक् करने योग्य नहीं हो सकेंगे। अवग्रह, ईहाज्ञान और चित्रज्ञान में उस प्रकार की प्रतीति होने का कोई विशेष नहीं है। एक पदार्थ अनेक धर्मात्मक है। इस सिद्धान्त को हम कई बार निर्णीत कर चुके हैं। तीसरा अवाय मतिज्ञान किस प्रकार का होगा ? इस प्रकार प्रतिपाद्य की जिज्ञासा होने पर श्री विद्यानन्द स्वामी अवाय का लक्षण कहते हैं अवग्रहज्ञान से गृहीत अर्थ के विशेष अंशों की आकांक्षा करने वाले ईहाज्ञान से उत्पन्न निर्णयआत्मक स्पष्ट अवायज्ञान है। वह अवायज्ञान इन्द्रियजन्य है और अवाय को आवरण करने वाले कर्मों के क्षयोपशम से होने वाला है। उस अवायज्ञान के नहीं होने पर ईहाज्ञान से जान लिये गये उस ईहित विषय
SR No.004286
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages438
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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