SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 300
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 295 सह स्मृत्यक्षविज्ञाने ततः स्यातां कदाचन / सौगतानामिति व्यर्थं मनोध्यक्षप्रकल्पनं // 55 // स्याद्वादिनां पुनर्ज्ञानावृत्तिच्छेदविशेषतः। समानेतरविज्ञानसंतानो न विरुध्यते // 56 // नन्वेवं परस्यापि समानेतरज्ञानसंतानैकत्वमदृष्टविशेषादेवाविरुद्धमतोक्षज्ञानसमनंतरप्रत्ययं निश्चयात्मकं मानसप्रत्यक्षं सिद्ध्यतीत्यभ्युपगमेपि दूषणमाह;प्रत्यक्षं मानसं स्वार्थनिश्चयात्मकमस्ति चेत् / स्पष्टाभमक्षविज्ञानं किमर्थक्यादुपेयते // 57 // अक्षसंवेदनाभावे तस्योत्पत्तौ विरोधतः। सर्वेषामंधतादीनां कृतं तत्कल्पनं यदि॥५८॥ तदाक्षानिंद्रियोत्पाद्यं स्वार्थनिश्चयनात्मकं / रूपादिवेदनं युक्तमेकं ख्यापयितुं सताम् // 59 // यदि बौद्ध स्मरण और इन्द्रियज्ञान की सन्तान धाराएँ दो मानेंगे, तब तो बौद्धों के यहाँ उन दो सन्तानों से कभी-कभी स्मरण और अक्षज्ञान साथ हो जाएंगे अत: मध्य में मानस प्रत्यक्ष की कल्पना करना व्यर्थ है॥५५॥ हम स्याद्वादियों के यहाँ ज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम विशेष से सजातीय और विजातीय ज्ञानों की सन्तान का उत्पन्न होना विरुद्ध नहीं है। अर्थात्-इन्द्रियज्ञान के उत्तर काल में स्मरण आवरण का क्षयोपशम होने पर उससे स्मरणज्ञान हो जाता है, और इन्द्रिय आवरण का क्षयोपशम होने पर इन्द्रिय ज्ञान से इन्द्रियज्ञान उत्पन्न हो जाता है। अर्थात् एक चैतन्य की धारा से प्रतिपक्षी कर्मों के क्षयोपशम या क्षय अनुसार विजातीयज्ञान व्यक्त होते रहते हैं। अवधिज्ञान, श्रुतज्ञान का उपादान हो जाए और श्रुतज्ञान मनःपर्यय का उपादान हो जाए तथा श्रुतज्ञान से केवलज्ञान उपादेय हो जाए, इसमें कोई विरोध नहीं आता है॥५६॥ . शंका : इस प्रकार स्याद्वादियों के अनुसार दूसरे बौद्धों के यहाँ भी पुण्य पापरूप अदृष्ट विशेष से ही सजातीय विजातीय ज्ञानों की संतान का एकपना अविरुद्ध हो जाता है। अर्थात्-एक सन्तान में ही अदृष्ट . . अनुसार क्रम से सजातीय विजातीय ज्ञान उत्पन्न हो जाएंगे। इससे इन्द्रियजन्यज्ञान को अव्यवहित पूर्ववर्ती कारण मानकर निश्चयस्वरूप मानसप्रत्यक्ष की उत्पत्ति सिद्ध हो जाती है। . इस पर जैनाचार्य कहते हैं कि इस प्रकार स्वीकार करने पर भी दूषण आता है। उसको आगे और स्पष्ट करते हैं - यदि बौद्धों के यहाँ अपना और अर्थ का निश्चय कराने वाला मानस प्रत्यक्ष अभीष्ट है तो स्पष्ट प्रकाशित इन्द्रियजन्य निर्विकल्पकज्ञान किस प्रयोजन की अपेक्षा से स्वीकार किया जा रहा है अर्थात् स्वपर का निर्णय करने वाले मानस प्रत्यक्ष के मान लेने पर उसके पूर्व में इन्द्रियजन्य निर्विकल्पकज्ञान मानना व्यर्थ है॥५७॥ यदि बौद्ध कहे कि इन्द्रियजन्य निर्विकल्पक ज्ञान के नहीं होने पर उस मानस प्रत्यक्ष की उत्पत्ति में विरोध आता है, क्योंकि ऐसा मानने पर इन्द्रिय प्रत्यक्ष के बिना सभी अन्धे, बहरे आदि इन्द्रियविकल जीवों के भी मानस प्रत्यक्ष होजाने का प्रसंग आयेगा अतः उस इन्द्रियप्रत्यक्ष की कल्पना करना सफल है। - आचार्य कहते हैं कि तब तो सज्जन पुरुषों को इन्द्रिय और अनिन्द्रिय से उत्पत्ति करने योग्य और स्वार्थों
SR No.004286
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages438
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy