________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 25 स्वमतविरोधोपि तस्यान्यथैवावतारात् तयोरसर्वपर्यायद्रव्यविषयत्वमात्रमेव हि स्वसिद्धांते प्रसिद्ध न पुनरनंतव्यंजनपर्यायाशेषद्रव्यविषयत्वमिति तद्व्याख्यानमप्यविरुद्धमेव बाधकाभावादिति न विषयाभेदस्तदेकत्वस्य साधकः॥ इंद्रियानिंद्रियायत्तवृत्तित्वमपि साधनम्। न साधीयोप्रसिद्धत्वाच्छ्रुतस्याक्षानपेक्षणात् // 31 // ___मतिश्रुतयोरेकत्वमिंद्रियानिंद्रियायत्तवृत्तित्वादित्यपि न श्रेयः साधनमसिद्धत्वात् साक्षादक्षानपेक्षत्वाच्छ्रुतस्य, परंपरया तु तस्याक्षापेक्षत्वं भेदसाधनमेव साक्षादक्षापेक्षयोर्विरुद्धधर्माध्याससिद्धेः॥ नानिद्रियनिमित्तत्वादीहनश्रुतयोरिह। तादात्म्यं बहुवेदित्वाच्छुतस्येहाव्यपेक्षया॥३२॥ अवग्रहगृहीतस्य वस्तुनो भेदमीहते। व्यक्तमीहा श्रुतं त्वर्थान् परोक्षान् विविधानपि // 33 // अतः अपने मत से विरोध भी आता है परन्तु यह विरोध नहीं है क्योंकि उसका दूसरे प्रकार ही व्याख्यान द्वारा कथन है। उन मति और श्रुत दोनों के केवल असर्व पर्याय और द्रव्यों को विषय करनापन ही अपने (जैन) सिद्धान्त में प्रसिद्ध है, किन्तु फिर दोनों में अनन्त व्यंजनपर्याय और सम्पूर्ण द्रव्यों को विषय कर लेनापन नहीं माना गया है। इस प्रकार इस सूत्र का व्याख्यान करना भी अविरुद्ध ही पड़ता है। अर्थात् सर्व द्रव्य और कुछ पर्यायों को जानना मतिज्ञान और श्रुतज्ञान में समान है फिर भी श्रुतज्ञान के समान मतिज्ञान सूक्ष्म व्यञ्जनादि पर्यायों को जानने में समर्थ नहीं है। बाधक प्रमाण का अभाव होने से विषय का अभेद भी उन मति, श्रुतज्ञानों के एकपन का साधक नहीं है। ... मतिज्ञान और श्रुतज्ञान में अभेद सिद्ध करने के लिए दिया गया बहिरंग इन्द्रिय और अन्तरंग इन्द्रिय के आधीन होकर प्रवर्त्तना रूप हेतु भी उपयुक्त नहीं है। क्योंकि उसका पक्ष में अस्तित्व न होने से वह हेतु असिद्ध हेत्वाभास है, श्रुतज्ञान के स्पर्शन आदि बहिरंग इन्द्रियों की अपेक्षा नहीं है॥३१॥ मतिज्ञान और श्रुतज्ञान में एकपना है। इन्द्रिय और मन के आधीन होकर प्रवृत्ति करने वाला होने से, यह हेतु भी श्रेष्ठ नहीं है क्योंकि इसमें स्वरूपासिद्ध दोष है। साक्षात् अव्यवहित रूप से श्रुतज्ञान इन्द्रियों की अपेक्षा नहीं करता है। परम्परा से उस श्रुतज्ञान को बहिरंग इन्द्रियों की अपेक्षा है किन्तु इससे भेद की ही सिद्धि होती है। मतिज्ञान को साक्षात् रूप से बहिरंग इन्द्रियों की अपेक्षा है और श्रुतज्ञान को व्यवहितरूप से बहिरंग इन्द्रियों की अपेक्षा है। इस प्रकार विरुद्ध धर्मों से आरूढ़पने की सिद्धि होने से मति और श्रुत में भेद सिद्ध होता है। अत: उक्त हेतु विरुद्ध हेत्वाभास है। - इस प्रकरण में ईहामतिज्ञान और शब्दजन्य वाच्य अर्थ ज्ञान रूप श्रुतज्ञान का निमित्त कारण मन है अतः मति और श्रुत में मन के निमित्तपना होने से दोनों का तादात्म्य है-ऐसा कहना उचित नहीं है। ईहा मतिज्ञान की अपेक्षा श्रुतज्ञान बहुत अधिक विषय को जानने वाला है॥३२॥ ___अवग्रह से ग्रहण की गई वस्तु के विशेष अंशों में भेद को ग्रहण करने वाला ईहा ज्ञान वस्तु के केवल थोड़े भेद अंश का प्रकटरूप से ईहन करता है और श्रुतज्ञान नाना प्रकार के परोक्ष अर्थों को भी जानता है। अर्थात् एक तरफ तो बिन्दुमात्र ईहा ज्ञान का विषय और दूसरी ओर श्रुतज्ञान का समुद्र समान अपरिमित ' विषय। ऐसी दशा में दोनों एक हो सकते हैं ? अर्थात् नहीं॥३३॥