________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 273 प्रदीपघटयोः स्वरूपतोभ्युपगमादन्योन्यापेक्षौ प्रकाशकत्वप्रकाश्यत्वधर्मों परस्पराविनाभाविनौ भविष्येते तथान्योन्याश्रयणात्तदभावाज्ज्ञानार्थयोरपि स्वसामग्रीबलादुपजातयो: स्वरूपेण परस्परापेक्षया ग्राह्यग्राहकभावधर्मव्यवस्था स्थीयतां तथा प्रतीतेरविशेषात् / तदुक्तं / “धर्मधर्म्यविनाभावः सिध्यत्यन्योन्यवीक्षया। न स्वरूपं स्वतो ह्येतत्कारकज्ञापकादिति” ततो ज्ञानस्यालंबनं चेदर्थो न जनक: जनकश्चेन्नालंबनं विरोधात् / पूर्वकालभाव्यर्थो ज्ञानस्य कारणं समानकालः स एवालंबनं तस्य क्षणिकत्वादिति चेत् न हि, यदा जनकस्तदालंबनमिति कथमालंबनत्वेन जनकोर्थः संविद: स्यात् / पूर्वकाल एवार्थो जनको के द्वारा परस्पर की अपेक्षा से ग्राह्य ग्राहकपन धर्म की व्यवस्था का श्रद्धान कर लेना चाहिए क्योंकि उस प्रकार प्रतीति होने का कोई अन्तर नहीं है। अर्थात् पिता और पुत्र के शरीरों की उत्पत्ति परस्परापेक्ष नहीं है परन्तु पितापन और पुत्रपन यह व्यवहार ही एक दूसरे की अपेक्षा रखने वाला है। इसी प्रकार दीप, घट, ज्ञान, ज्ञेय, इन पदार्थों की उत्पत्ति तो स्वकीय नियत कारणों से ही होती है। किन्तु आपेक्षिक धर्म एक दूसरे की सहायता से व्यवहत हो जाते हैं। अत: कारकपक्ष का अन्योन्याश्रय दोष नहीं आता है और ज्ञापक पक्ष का भी परस्पर आश्रय दोष नहीं होता है। केवल व्यवहार परस्पर की अपेक्षा से कर लिया जाता है। श्री समन्तभद्र आचार्य भगवान् ने भी देवागम स्तोत्र में कहा है कि धर्म और धर्मियों का अविनाभाव तो परस्पर की अपेक्षा करके ही सिद्ध होता है। किन्तु उनका स्वरूपलाभ अन्योन्यापेक्ष नहीं है क्योंकि धर्म और धर्मी पदार्थों का स्वरूप पहले से ही स्वकीय पृथक्-पृथक् कारणों द्वारा निर्मित है। जैसे कि कारक के अवयव कर्ता, कर्म, करण आदि पहले से ही निष्पन्न है। फिर भी किसी विवक्षित क्रिया की अपेक्षा से उनमें कर्त्तापन, कर्मपन का व्यवहार सिद्ध किया जाता है। इसी प्रकार ज्ञापक के अवयव प्रमाण, प्रमेयों का स्वरूप भी स्वत: सिद्ध है परन्तु ज्ञाप्यज्ञापक व्यवहार ही परस्पर की अपेक्षा रखने वाला है। ऐसे ही वाच्य अर्थ और वाचक शब्द का स्वरूप लाभ अपने-अपने कारणों द्वारा पूर्व में ही स्थित है। केवल ऐसा व्यवहार अन्योन्याश्रित है, अत: यह सिद्ध होता है कि यदि ज्ञान का विषयभूत आलम्बन अर्थ माना जायेगा तो वह अर्थ अपने ज्ञान का उत्पादक नहीं हो सकता तथा अर्थ को यदि ज्ञान का जनक कहोगे तो वह अर्थ ज्ञान का आलम्बन नहीं हो सकेगा क्योंकि इसमें विरोध है। अर्थात् इन्द्रिय, अदृष्ट, आदि पदार्थ घट ज्ञान के कारण हैं किन्तु विषय नहीं, और चिरभूत काल के पदार्थ स्मरण में आलम्बन हैं, किन्तु स्मरण के अव्यवहित पूर्वसमयवर्ती होकर उत्पादक कारण नहीं है। बौद्ध : पूर्वकाल में स्थित अर्थ ज्ञान का कारण है और वही अर्थ वर्तमान समानकाल में उस.ज्ञान का आलम्बन हो जाता है, क्योंकि वह अर्थ क्षणिक है अत: दूसरे क्षणं में आ नहीं सकता है। जैनाचार्य कहते हैं इस प्रकार बौद्धों के कहने पर तो जिस समय वह क्षणिक अर्थ ज्ञान का जनक हो रहा है, तब तो आलम्बन नहीं है और जब नष्ट हो चुका अर्थ आलम्बन माना है, उस समय वह जनक नहीं है। ऐसी दशा में आलम्बनरूप से वह अर्थ ज्ञान का जनक कैसे हो सकेगा?