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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 267 वक्ष्यते हि स्पर्शनादींद्रियं पंच द्रव्यभावतो द्वैविध्यमास्तिघ्नुवानं तथानिंद्रियं चानियतमिंद्रियेष्टेभ्योन्यत्वमात्मसात्कुर्वदिति नेहोच्यते। तद्बाह्यनिमित्तं प्रतिपत्तव्यं। किमिदं ज्ञापकं कारकं वा तस्येष्टं कुतः स्वेष्टसंग्रह इत्याह;निमित्तं कारकं यस्य तत्तथोक्तं विभागतः। वाक्यस्यास्य विशेषाद्वा पारंपर्यस्य चाश्रितौ // 5 // तद्धि निमित्तमिह न ज्ञापकं तत्प्रकरणाभावात्। किं तर्हि / कारकं / तथा च सति प्रकृतमिंद्रियमनिंद्रियं च निमित्तं यस्य तत्तथोक्तमेकं मतिज्ञानमिति ज्ञायते इष्टसंग्रहः / पुनरस्य वाक्यस्य विभजनात्तदिंद्रियानिंद्रियनिमित्तं स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु, श्रोत्र ये पाँचों बहिरंग इन्द्रियाँ द्रव्य और भाव से दो प्रकार प्राप्त हैं तथा मन भी द्रव्य, भाव रूप से दो प्रकार का समझना चाहिए। जैसे चक्षु, रसना आदि के लिए स्थान नियत है, विषय नियत है, वैसे मन का स्थान और विषय नियत नहीं है। अत: विचलित मन नियत इष्ट की गई पाँच इन्द्रियों से भिन्नपने को अपने अधीन करता है। अर्थात् आत्मा की मन इन्द्रियावरण के क्षयोपशम अनुसार विचार रूप परिणति भावमन है और हृदयस्थ कमल में मनोवर्गणा से बन गया पौद्गलिक पदार्थ द्रव्यमन है। तथापि इन्द्रियों के समान नियत विषय और नियत स्थान न होने से मन को यहाँ इन्द्रिय नहीं कहा गया है। मन और इन्द्रियों को मतिज्ञान के बहिरंग कारण समझना चाहिए। .. क्या ये इन्द्रिय, अनिन्द्रिय उस मतिज्ञान के ज्ञापक हेतु हैं? अथवा कारक हेतु इष्ट किये हैं? किस प्रकार इनको हेतु मानकर अपने इष्ट सभी भेदों का संग्रह हो सकता है? ऐसी प्रतिपाद्य की आकांक्षा होने पर विद्यानन्द आचार्य कहते हैं - जिसका जो निमित्त कारण है, वह उसका उस प्रकार कारक हेतु समझना चाहिए। इस सूत्र के वाक्य विशेष के द्वारा योग-विभाग करने से सभी इष्ट भेदों में इन्द्रिय अनिन्द्रिय निमित्तपना बन जाता है। अथवा परम्परा का आश्रय करने पर तो योगविभाग न करते हुए भी स्पर्शज्ञान, रूपज्ञान, स्मृति, चिंता आदि में इन्द्रिय और मन का निमित्तपना घटित हो जाता है॥५॥ इस सूत्र में कथित मतिज्ञान के निमित्त इन्द्रियाँ और मन कहे हैं, वे ज्ञापक हेतु नहीं हैं? क्योंकि यहाँ उन ज्ञापक हेतुओं का प्रकरण नहीं है। शंका : कौनसा हेतु है? समाधान : वे कारक हेतु हैं और ऐसा होने पर प्रकृत इन्द्रिय और मन है निमित्त जिसका. इस बहुव्रीही समास के सामर्थ्य से उपर्युक्त सर्व मति स्मृति आदि सर्व मतिज्ञानों के भेदों का संग्रह हो जाता है। अर्थात्मतिज्ञानावरण के क्षयोपशम से होने वाले सर्व मतिज्ञान के भेद इन्द्रिय और मन के निमित्त से होते हैं अत: इस सूत्र से सभी भेद-प्रभेदों का संग्रह कर लिया गया है ऐसा समझना चाहिए। इस सूत्रवाक्य का एक बार इन्द्रिय और अनिन्द्रिय अर्थ कर लेना चाहिए। पुन: उस वाक्य का विभाग कर अकेले अनिन्द्रिय अर्थ को ही ग्रहण करना चाहिए। यह मतिज्ञान इन्द्रिय अनिन्द्रियनिमित्तों से उत्पन्न होता है। ऐसा
SR No.004286
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages438
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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