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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 259 यतोभयं तदेवैषां स्वयमग्रे व्यवस्थितम् / हेतोरनन्वयत्वस्य प्रसंजनमसंशयं // 382 // सत्तायां हि प्रसाध्यायां विशेषस्यैव साधनात् / यथानन्वयतादोषस्तथात्राप्यनिदर्शनात् // 383 // हेतोरनन्वयस्यापि गमकत्वोपवर्णने। सत्ता साध्यास्तु मानानामिति धर्मी न संगरः॥३८४॥ धर्मिधर्मसमूहोत्र पक्ष इत्यपसारितम् / एतेनेति स्थितः साध्यः पक्षो विध्वस्तबाधकः // 385 // व्याप्तिकाले मतः साध्यः पक्षो येषां निराकुलः। सोन्यथैवे कथं तेषां लक्षणव्यवहारयोः॥३८६॥ साधन की सिद्धि नहीं हो सकती। यदि इस प्रकार के अनुमान प्रयोग से प्रमाणों की आकुलतारहित सिद्धि मान ली जाती है तब तो सभी स्थानों पर उन प्रमाणों की सत्ता को साध्य नहीं करना चाहिए।॥३८०-३८१ // इसके प्रत्युत्तर में आचार्य कहते हैं कि जिस बात से इन शून्यवादियों को भय था वह प्रसंग इनके सन्मुख आकर स्वयं उपस्थित हो गया अर्थात् शून्यवादी प्रमाणों की सिद्धि को मानना नहीं चाहते थे क्योंकि इष्टसाधन हेतु का अन्वय दृष्टान्त नहीं मिलने के कारण वह कह रहा था कि अन्वय दृष्टान्त के बिना इष्टसाधन हेतु प्रमाणों को सिद्ध नहीं कर सकता है। शून्यवादियों ने अन्वयदृष्टान्त बन जाने के लिए कोई वस्तुभूत पदार्थ माना ही नहीं है अत: हेतु के अन्वयदृष्टान्त से रहितपन का प्रसंग देना नि:संशय है। परन्तु सामान्यरूप से सामान्यप्रमाण की सत्ता सिद्ध हो जाने पर विशेष प्रमाण की ही सत्ता को साध्य बनाने में इष्टसाधन हेतु का प्रयोग करना सफल हो जाता है। जिस प्रकार अन्वयरहितपना दोष है, उसी प्रकार दृष्टांत के न होने से तुम शून्यवादियों के यहाँ भी अपने इष्ट की सिद्धि नहीं हो सकती है अर्थात् शून्यवादी के वस्तुपदार्थ नहीं होने से प्रमाण के अभाव सिद्धि करने में अन्वयत्व और दृष्टांत का अभाव है।।३८२-३८३ // __यदि अन्वय दृष्टांत से रहित हेतु को भी साध्य का ज्ञापकपना अभीष्ट कर लोगे, तब तो प्रमाणोंकी सत्ता भी साध्य हो जायेगी। इस प्रकार धर्मी प्रसिद्ध ही होना चाहिए, यह प्रतिज्ञा सिद्ध नहीं हो सकती अर्थात् धर्मी एकान्त से प्रसिद्ध ही होता है, ऐसा नहीं है॥३८४॥ इस प्रकरण में 'धर्मी और धर्म का समुदाय पक्ष है।' यह भी इस उक्त कथन द्वारा निवारण कर दिया गया है अत: इससे यह सिद्ध हुआ कि जिसके बाधक ज्ञान विध्वस्त हो गये हैं उसे साध्य पक्ष माना गया है॥३८५॥ . जिन विद्वानों के यहाँ व्याप्तिग्रहण काल में निराकुल होकर साध्य ही पक्ष माना गया है, उनके यहाँ वह साध्य व्याप्ति स्वरूप ग्रहण करने के काल में और अनुमान प्रयोग करने पर व्यवहारकाल में दूसरे प्रकार का कैसे हो सकता है? जो साध्य के साथ निर्णीत हेतु की व्याप्ति हो जाने पर व्याप्ति काल में साधा जा रहा
SR No.004286
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages438
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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