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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 256 सुप्रसिद्धश्च विक्षिप्त: पक्षोऽकिंचित्करत्वतः। तत्र प्रवर्तमानस्य साधनस्य स्वरूपवत् // 365 // समारोपे तु पक्षत्वं साधनेपि न वार्यते। स्वरूपेणैव निर्दिश्यस्तथा सति भवत्यसौ // 366 // जिज्ञासितविशेषस्तु धर्मी यैः पक्ष इष्यते। तेषां संति प्रमाणानि स्वेष्टसाधनतः कथं // 367 // धर्मिण्यसिद्धरूपेपि हेतुर्गमक इष्यते। अन्यथानुपपन्नत्वं सिद्धं सद्भिरसंशयं // 368 // धर्मिसंतानसाध्याश्चेत् सर्वे भावाः क्षणक्षयाः। इति पक्षो न युज्येत हेतोस्तद्धर्मतापि च // 369 // हैं। उन प्रसिद्ध साध्यों के साधने में प्रवृत्त हेतु भी स्वरूप समान कार्य नहीं करता है अत: अकिंचित्कर हेत्वाभास है। यदि उस साध्य में कोई संशय, विपर्यय, अज्ञान नाम का समारोप उपस्थित हो जाता है तब उस साध्य का पक्षपना निवारण नहीं किया जा सकता है। अर्थात्-हेतु के भी यदि समारोप हो जाता है तो उस हेतु को साध्य कोटि में लाकर अन्य हेतुओं से पक्ष बना लिया जाता है। ऐसा होने पर वह संदिग्ध, विपर्यस्त, अज्ञात साध्य अपने स्वकीय रूप के द्वारा ही निर्देश करने योग्य होता है॥३६५-३६६॥ - जिन वादियों के द्वारा यह कहा जाता है कि पक्ष तो प्रसिद्ध ही होना चाहिए किन्तु जिस पक्ष के जानने की इच्छा विशेषरूप से उत्पन्न हो रही है, वह धर्मी पक्ष बना लिया जाता है। उन नैयायिक या बौद्धों के यहाँ “प्रमाणानि सन्ति स्वेष्टसाधनात्" प्रत्यक्ष आदिक प्रमाण हैं, अपने-अपने अभीष्ट तत्त्वों की सिद्धि होना देखा जाता है। यह पक्ष कैसे बन सकेगा? यहाँ धर्मी प्रमाणों के द्वारा सर्वथा अप्रसिद्धरूप होने पर भी हेतु गमक कैसे मान लिया गया है ? किन्तु सज्जन विद्वानों ने यहाँ संशयरहित अन्यथानुपपत्ति को सिद्ध माना है अत: यह समीचीन हेतु है। भावार्थ : बौद्धों का यह अभिप्राय था कि संदिग्ध पुरुष को ही तत्त्व को जानने की इच्छा होती है, विपर्ययी और अज्ञानी तो जानने, समझने की इच्छा नहीं रखते हैं। इसके प्रत्युत्तर में आचार्यों ने कहा है कि “इष्ट साधन की व्यवस्था होने से प्रमाणतत्त्व है।" यह तो विपरीत ज्ञानी या अज्ञानियों के प्रति ही विशेषरूप से सिद्ध किया जाता है। जो शून्यवादी या उपप्लववादी प्रमाण को किसी भी प्रकार से जानना नहीं चाहते हैं, उनके प्रति उक्त प्रमाण साधक अनुमान कहा जाता है अतः प्रसिद्ध किन्तु जिज्ञासित विशेष को पक्ष नहीं कहना चाहिए / / 367-368 // ___यदि कहो कि धर्मी की संतान साध्य हैं, क्योंकि वह संतान देर तक टिकती है, तबतो सम्पूर्ण पदार्थ क्षणिक है, यह पक्ष ठीक नहीं हो सकेगा। तथा हेतु को उस पक्ष का धर्मपना भी नहीं बन सकेगा। क्योंकि उस प्रकरण में सम्पूर्ण रूप से धर्मी पदार्थों की प्रत्यक्ष प्रमाण से प्रसिद्धि नहीं है। यदि अन्य अनुमान से उन
SR No.004286
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages438
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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