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________________ - तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 244 काः पुनस्ता इत्याह;प्राणादयो न संत्येव भस्मादिषु कदाचन। जीवत्वासिद्धितो हेतुव्यापकादृष्टिरीदृशी // 317 // क्वचिदात्मनि संसारप्रसूतिर्नास्ति कात्य॑तः। सर्वकर्मोदयाभावादिति वा समुदाहृता // 318 // तद्धेतहेत्वदृष्टिः स्यान्मिथ्यात्वाद्यप्रसिद्धितः। तन्निवृत्तौ हि तद्धेतुकर्माभावात्क्व संसृतिः॥३१९॥ तत्कार्यव्यापकासिद्धिर्यथा नास्ति निरन्वयं। तत्त्वं क्रमाक्रमाभावादन्वयकांततत्त्ववत् // 320 // तत्कार्यव्यापकस्यापि पदार्थानुपलंभनं। परिणामविशेषस्याभावादिति विभाव्यताम् // 321 // शंका : निषेध्य - साध्यअंश के कारण से व्यापक हो रहे की अनुपलब्धि अथवा साध्यदल निषेध्य के व्यापक से व्यापक हो रहे की अनुपलब्धि आदि भी सुनी जाती है फिर पाँच ही अनुपलब्धियाँ क्यों कहीं ? इस प्रकार कहने पर आचार्य समाधान करते हैं कि तुम ठीक कहते हो। पाँच प्रकारों के अतिरिक्त भी अनुपलब्धियाँ हैं, किन्तु वे सब इन पाँचों में ही अन्तर्भाव को प्राप्त हो जाती हैं। इस बात को स्पष्ट किया गया है इस निषेध्यसाध्य की कारण, व्यापक अनुपलब्धि को लेकर के जो अनुपलब्धियाँ देखी सुनी जाती हैं, वे सब अनेक प्रकार की अनुपलब्धियाँ उन पाँचों में ही परम्परा से अन्तर्भाव को प्राप्त हो जाती हैं॥३१६॥ __ वे अन्तर्भूत अनुपलब्धियाँ फिर कौन-कौन सी हैं? इस बात को कहते हैं भस्म आदि में प्राण, नाड़ी चलना आदि कभी भी नहीं है क्योंकि प्राणधारणरूप जीवपने की उनमें सिद्धि नहीं है। इस प्रकार की हेतु व्यापक अनुपलब्धि है। अर्थात् निषेध करने योग्य प्राण आदि का कारण शरीर सहितत्व है, और शरीर सहितत्व का व्यापक जीवत्व है। किसी आत्मा का पुन: संसार में जन्म लेना सम्पूर्णरूप से नहीं है-ज्ञानावरण आयुष्य आदि सम्पूर्ण कर्मों के उदय का अभाव होने से। संसार में जन्म मरण करने का कारण आयुष्य कर्म या राग, द्वेष, योग और द्रव्यकर्म हैं। इनका व्यापक सम्पूर्ण कर्मों का अभाव है। अत: यह कारण-व्यापक अनुपलब्धि हेतु कहा गया है॥३१७-३१८॥ उस निषेध्य के हेतुओं के हेतुओं की अनुपलब्धि इस प्रकार है कि किसी आत्मा में फिर संसार की उत्पत्ति नहीं है क्योंकि मिथ्यादर्शन, अविरत, कषाय आदि की अप्रसिद्धि है। उन मिथ्यात्व आदि की निवृत्ति हो जाने पर उनका कारण मानकर उत्पन्न होने वाले कर्मों का अभाव हो जाता है और समस्त कर्मों का अभाव हो जाने से फिर संसार की उत्पत्ति कैसे हो सकती है ? अर्थात् कर्म रहित जीव की पुनः संसार में उत्पत्ति, विपत्तियाँ नहीं होती हैं। संसार के अभाव का कारण कर्मों का अभाव है और कर्मों के अभाव का कारण मिथ्यादर्शन आदि का अभाव है अत: यह हेतु के हेतु की अनुपलब्धि है।३१९॥ आचार्य कार्य व्यापकानुपलब्धि का उदाहरण देते हैं सत्स्वरूपतत्त्व पूर्व उत्तर पर्यायों में अन्वय नहीं रखने वाला क्षणिक नहीं है, क्रम और अक्रम का अभाव होने से। जैसे कि सर्वथा कूटस्थवादी द्वारा माना गया कोरा अन्वय सर्वथा नित्य एकान्तरूप तत्त्व
SR No.004286
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages438
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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