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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 204 पुरुषगुणविशेषत्वादित्येवमादेः प्रत्यक्षानुमानाभ्यामबाधितविषयस्याप्यगमकत्वप्रसक्तिरसत्प्रतिपक्षत्वाभावे च सत्प्रतिपक्षस्य सर्वगतं सामान्यं सर्वत्र सत्प्रत्ययहेतुत्वादित्येवमादेर्गमकत्वापत्तिरिति तत्प्रत्याख्यातं / प्रत्यक्षादिभिः साध्यविपरीतस्वभावव्यवस्थापनस्य बाधितविषयत्वस्य वचनात् / प्रतिपक्षानुमानेन च तस्य सत्प्रतिपक्षत्वस्याभिधानात् तद्व्यवच्छेदस्य च साध्यस्वभावेन तथोपपत्तिरूपेण सामर्थ्यादन्यथानुपपत्तिस्वभावेन सिद्धत्वादबाधितविषयत्वादे रूपांतरत्वकल्पनानर्थक्यात् सत्यपि तस्य रूपांतरत्वे तन्निश्चयासंभवः परस्पराश्रयणात् तत्साध्यविनिश्चययोरित्याहयावच्च साधनादर्थः स्वयं न प्रतिनिश्चितः। तावन्न बाधनाभावस्तत्स्याच्छक्यविनिश्चयः॥१९३॥ सति हि बाधनाभावनिश्चये हेतोरबाधितविषयत्वासत्प्रतिपक्षत्वसिद्धेः साध्यनिश्चयस्तन्निश्चयाच्च प्राप्ति होती है। आगम से 'पुरुषगुणविशेषत्व हेतु का साध्य सुख नहीं देना है' बाधित होता है अत: हेतु का गुण अबाधित विषयत्व मानना चाहिए। तथा हेतु का गुण असत्प्रतिपक्षपना नहीं मानने पर सत्प्रतिपक्ष हेत्वाभासों को भी साध्य ज्ञापकपने का प्रसंग हो जायेगा। सामान्यस्वरूप जाति सर्वत्र व्यापक है क्योंकि सभी स्थलों पर है इस ज्ञान का कारण होने से अर्थात् इस अनुमान का प्रतिपक्षी अनुमान इस प्रकार हैसदृशपरिणामस्वरूप सामान्य व्यापक नहीं है क्योंकि नियतदेशव्यापी व्यक्तियों के साथ पृथक्-पृथक् सामान्य तदात्मक हैं। यदि सामान्य व्यापक होता तो दूरवर्ती दो व्यक्तियों के अन्तराल में भी दीखना चाहिए था। इसी प्रकार शब्द नित्य है-प्रत्यभिज्ञान का विषय होने से; इसका प्रतिपक्ष शब्द अनित्य है-कृतक होने से, यह विद्यमान है। इत्यादि सत्प्रतिपक्ष हेत्वाभासों के गमकपन का प्रसंग आएगा। उसके निवारणार्थ हेतु का गुण असत्प्रतिपक्षपना होना चाहिए। इस प्रकार के असत्प्रतिपक्षत्व का इस उक्त कथन से खण्डन कर दिया गया है, ऐसा समझ लेना चाहिए। क्योंकि प्रत्यक्ष, अनुमान आदि प्रमाणों के द्वारा साध्य से विपरीत स्वभाव की व्यवस्था करा देना ही बाधित विषयपना कहा गया है और प्रतिपक्षी को व सिद्ध करने वाले दूसरे अनुमान के द्वारा उसे पूर्व हेतु का सत्प्रतिपक्षपना कहा गया है। किन्तु उन दोनों दोषों के व्यवच्छेद उत्पत्ति रूप साधने योग्य स्वभाव के द्वारा तथा सामर्थ्य से अन्यथानुपपत्तिरूप स्वभाव के द्वारा उन दोषोंका निराकरण सिद्ध हो जाता है अतः अबाधित विषयत्व आदि को हेतु का पृथक्-पृथक् रूप मानने की कल्पना करना व्यर्थ है। तथा अबाधित विषयत्व आदि को हेतु का रूपान्तरत्व होने पर भी उनका निश्चय करना असम्भव है क्योंकि अबाधित विषयत्व आदि रूपों से सहित उस हेतु के साध्य और उन रूपों का विशेष निश्चय करने में अन्योन्याश्रय दोष आता है। इस बात का ग्रन्थकार स्वयं निरूपण करते हैं जब तक हेतु के द्वारा साध्यरूप अर्थ का स्वयं प्रतिज्ञापूर्वक निश्चय नहीं किया जाता है, तब तक उस हेतु के विषय साध्य में बाधाओं के अभाव का विशेषरूप से निश्चय करना शक्य नहीं होता है॥१९३।। क्योंकि बाधकों द्वारा बाधा होने के अभाव का निश्चय हो जाने पर हेतु के अबाधितविषयत्व और असत्प्रतिपक्ष की सिद्धि होती है, और उस हेतु द्वारा साध्य का निश्चय होता है तथा उस साध्य का निश्चय
SR No.004286
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages438
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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