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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 168 क्षयोपशमसंज्ञेयं योग्यतात्र समानता। सैव तर्कस्य संबंधज्ञानसंवित्तितः स्वतः॥१०९॥ न प्रत्यक्षं स्वार्थे संबंधग्रहणापेक्षं प्रवर्तते क्वचिदकस्मात्तत्प्रवृत्तिदर्शनात् / किं तर्हि / तस्य स्वसंवेदनादिवत्स्वार्थग्रहणसिद्धिः स्वतोंतींद्रियः कश्चित्संबंधः। स्वार्थानुमानः सिद्धयेदितिचेत् सैव योग्यता स्वावरणक्षयोपशमाख्या प्रत्यक्षस्यार्थप्रकाशनहे तुरिह समायाता। तर्क स्यापि स्वयं व्याप्तिग्रहणानुभवात्तज्ज्ञानावरणक्षयोपशमरूपा योग्यतानुमीयमाना सिद्ध्यतु प्रत्यक्षवदनवस्थापरिहारस्यान्यथा कर्तुमशक्तेः। ननु च यथा तर्कस्य स्वविषयसंबंधग्रहणमनपेक्षमाणस्य प्रवृत्तिस्तथानुमानस्यापि सर्वत्र ज्ञाने स्वावरणक्षयोपशमस्य स्वार्थप्रकाशनहेतुरविशेषात्। ततोनर्थकमेव तत्संबंधग्रहणाय तर्कपरिकल्पनमितिचेत् , सत्यमनुमानस्यापि स्वयोग्यता ग्रहणनिरपेक्षकमनुमेयार्थप्रकाशनं न पुनरुत्पत्तिलिंगलिंगिसंबंधग्रहणनिरपेक्षास्त्यनियामक मानी जाती है। अर्थात् प्रत्यक्षज्ञान जैसे घट को जानने में स्वतंत्र है, उत्पत्ति होने में भले ही इन्द्रिय आदिक की अपेक्षा करें वैसे ही अपनी योग्यता अनुसार अनुमान ज्ञान साध्य को जानने में स्वतंत्र है, उसी प्रकार तर्कज्ञान भी योग्यता के वश अपने साध्य और साधन के सम्बन्ध को विषय करने में स्वतंत्र है। 108-109 // (बौद्ध) अपने विषय में प्रत्यक्ष प्रमाण सम्बन्ध के ग्रहण की अपेक्षा रखता हुआ प्रवृत्ति नहीं करता है, क्योंकि किसी एक विषय में अकस्मात् उसकी प्रवृत्ति होना देखा जाता है तो, क्या है? ऐसी जिज्ञासा होने पर उत्तर है कि स्वसंवेदन, चित्रवेदन आदि के समान उस प्रत्यक्ष की स्वार्थ को ग्रहण करने की सिद्धि हो रही है अर्थात् इन्द्रिय, आत्मा, विषय आदि की योग्यता मिलने पर स्पष्ट इन्द्रियजन्यप्रत्यक्ष हो जाता है कोई सम्बन्ध की आवश्यकता नहीं है। इस प्रकार तो स्वत: कोई अतीन्द्रिय सम्बन्ध स्वार्थ अनुमान सिद्ध होता है? अर्थात् स्वार्थ के नियतरूप से ग्रहण किये जाने रूप कार्य को देखकर किसी-न-किसी अतीन्द्रिय सम्बन्ध का अनुमान हो जाने से इन्द्रियों द्वारा नहीं जानने योग्य सम्बन्ध सिद्ध हो जाता है। बौद्ध के ऐसा कहने पर जैन कहते हैं-वही विषयविषयीभाव का नियामक सम्बन्ध तो वह योग्यता है जिसका नाम स्वावरणकर्मों का क्षयोपशम है। वही योग्यता प्रत्यक्ष के द्वारा नियत अर्थों के प्रकाश करने का हेतु है। तर्कज्ञान की स्वयं व्याप्ति के ग्रहणरूप अनुभव से उस तर्कज्ञान के आवरण करने वाले कर्मों की क्षयोपशम रूप योग्यता भी अनुमान से जानी गई सिद्ध होती है। अन्यथा (यानी योग्यता को माने बिना) अनवस्था दोष का परिहार नहीं किया जा सकता है। जैसे कि प्रत्यक्ष में योग्यता को माने बिना अनवस्था का परिहार नहीं हो सकता है। जैसे अपने सम्बन्धरूप विषय में अन्य सम्बन्ध के ग्रहण की अपेक्षा नहीं रखने वाले तर्कज्ञान की अपने विषय में प्रवृत्ति होना माना जाता है, वैसे ही अनुमान की भी अपने विषय साध्य को जानने में व्याप्तिरूप सम्बन्ध के ग्रहण की अपेक्षा नहीं होकर ही प्रवृत्ति माननी चाहिए क्योंकि सभी ज्ञानों में अपनेअपने आवरणों की क्षयोपशमरूप योग्यता ही स्वार्थ के प्रकाश करने में हेतु है। प्रत्यक्ष या तर्क से अनुमान में कोई विशेषतां नहीं है।
SR No.004286
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages438
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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