________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 164 समारोपव्यवच्छेदात्स्वार्थे तर्कस्य मानता। लैंगिकज्ञानवन्नैव विरोधमनुधावति // 18 // प्रवृत्तश्च समारोपः साध्यसाधनयोः क्वचित् / संबंधे तर्कतो मातुर्व्यवच्छेद्येत कस्यचित् // 19 // संवादकोप्रसिद्धार्थसाधनस्तद्व्यवस्थितः। समारोपछिदूहोत्र मानं मतिनिबंधनः // 100 // प्रमाणमूहः संवादकत्वादप्रसिद्धार्थसाधनत्वात् समारोपव्यवच्छेदित्वात्प्रमाणभूतमतिज्ञाननिबंधनत्वादनुमानादिवदिति सूक्तं बुद्ध्यामहे। ननूहो मतिः स्वयं न पुनर्मतिनिबंधन इति चेन्न, मतिविशेषस्य तस्य प्रत्याख्यान कर देते हैं और इस प्रकार कहने वाला वह उन्मत्त क्यों नहीं समझा जाता? अर्थात् जो ज्ञान को जन्म देने वाले कारणों को विषय योग्य बनाता है, वह अवश्य उन्मत्त है, अत: सर्वथा प्रत्यक्ष और अनुपलम्भ के द्वारा ग्रहण किये गये अर्थों का ग्राहक तर्कज्ञान नहीं है अपितु उन प्रत्यक्ष अनुपलम्भों से कथंचित् गृहीत हुए अर्थों का ग्रहण करना उस तर्कज्ञान की प्रमाणता का विरोध नहीं करता है। जैसे अनेक प्रत्यक्ष और अनुमान कथंचित् पूर्व अर्थ को जानते हुए भी प्रमाणभूत हैं। इसका पहले विस्तार सहित कथन कर दिया गया है। __ अपने विषयभूत पदार्थ में उत्पन्न संशय, विपर्यय, अनध्यवसाय और अज्ञानरूप समारोपों का निराकरण करने वाला होने से तर्क ज्ञान प्रमाण है, जैसे कि साध्य को जानने में संशय आदि को दूर करने वाला अनुमान ज्ञान प्रमाण है; इसमें विरोध दोष का अनुसरण नहीं है॥९८॥ साध्य और साधन के किसी कार्यकारण भाव, व्याप्य-व्यापकभाव, पूर्वचरभाव, उत्तरचरभाव आदि संबंधों में यदि संशय अज्ञानरूप समारोप होता है, तो वह समारोप किसी भी प्रमाता (आत्मा) के तर्कज्ञान द्वारा निराकृत हो जाता है॥१९॥ वह तर्कज्ञान संवादक और अपूर्व अर्थ का ग्राहक तथा समारोप का व्यवच्छेदक एवं उपलम्भ अनुपलम्भरूप मतिज्ञान को कारण मानकर उत्पन्न हुआ है अत: उन मतिज्ञान के प्रकारों में ऊहज्ञान (तर्कज्ञान) प्रमाण सिद्ध है॥१००॥ ___बाधा रहित प्रमाणान्तरों की प्रवृत्तिरूप संवाद का जनक होने से, अपूर्व अर्थ का ग्राहक होने से, (प्रसिद्ध अर्थ का कारण होने से), संशय, विपर्यय, अनध्यवसाय और अज्ञान रूप समारोप का निवर्तक होने से और प्रमाणभत उपलम्भ, अनुपलम्भरूप मतिज्ञान और धारणा, स्मति. प्रत्यभिज्ञानरूप मतिज्ञाने को कारण मानकर उत्पन्न होने से तर्कज्ञान प्रमाण है। अर्थात् तर्कज्ञान मतिज्ञान के भेद धारणा, प्रत्यभिज्ञान के कारण से उत्पन्न होता है और व्याप्य, व्यापक आदि हेतुओं में उत्पन्न होने वाले संशय आदि समारोपों का विनाशक है तथा साध्य और साधन से सम्बन्ध को बताने वाला है तथा साध्य-साधन का सम्बन्ध अन्य ज्ञान से जाना नहीं जाता अत: यह ज्ञान अपूर्व अर्थग्राही है इसलिए प्रमाणभूत है। जैसे अनुमान, आगम आदि ज्ञान प्रमाण हैं। इस प्रकार उपर्युक्त प्रकरण में तर्क को ज्ञान कहा गया है यह सिद्ध है, ऐसा हम समझते शंका : ऊह (तर्क ज्ञान) स्वयं मतिज्ञान है, पर मतिज्ञान रूप कारणों से उत्पन्न हुआ नहीं है। समाधान : ऐसा कहना उचित नहीं है क्योंकि स्मरण नाम के मतिज्ञान में जैसे अनुभव नाम का