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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 137 अनर्थविषयत्वेपि स्मृतेः प्रवर्तमानार्थे प्रवर्तते संस्कारे प्रवृत्तेरसंभवादिति स्फुटं राजचेष्टितं यथेष्टं प्रवर्तमानात्॥ प्रत्यक्षं मानसं ज्ञानं स्मृतेर्यस्याः प्रजायते। सा हि प्रमाणसामग्रीवर्तिनी स्यात् प्रवर्तिका // 32 // प्रमाणत्वाद्यथा लिंगिलिंगसंबंधसंस्मृतिः। लिंगिज्ञानफलेत्याह सामग्रीमानवादिनः॥३३॥ तदप्यसंगतं लिंगिज्ञानस्यैव प्रसंगतः। प्रत्यक्षत्वक्षतेर्लिंगतत्फलायाः स्मृतेरिव // 34 // यस्याः स्मृतेः प्रत्यक्षं मानसं जायते सा तदेव प्रमाणं तत्सामण्यंतर्भूतत्वतः प्रवर्तिका स्वार्थे यथानुमानफला संबंधस्मृतिरनुमानमेवेति। वचनसंबंधं प्रमाणमनुमानसामण्यंतर्भूतमपीति चेत्स्मृति ज्ञान प्रमाणभूत है उसकी सिद्धि जैसे कोई स्वतंत्र राजा अपने सामर्थ्य के घमंड में आकर चाहे जैसे कर (टैक्स) लगा देता है, यथेष्ट चेष्टा करता है, वैसे ही स्मृति को वस्तुभूत अर्थ का विषय करने वाली नहीं मानकर भी प्रवृत्ति करने वाला बौद्ध उस स्मृति के द्वारा अर्थ में प्रवृत्ति कर रहा है यह बौद्ध की अनर्गल चेष्टा है, क्योंकि संस्कार होने पर तो प्रवृत्ति होना असम्भव है अतः प्रत्यक्ष ज्ञान या अप्रत्यक्ष अनुमान ज्ञान के समान स्मृति भी अर्थवाली है, प्रमाणभूत हैं; ऐसा मानना चाहिए। जिस स्मृति से प्रत्यक्षरूप मानसज्ञान उत्पन्न होता है, वही स्मृति प्रत्यक्ष प्रमाण की कारण सामग्री में वर्तती हुई प्रवर्तक मानी गई है (अत: प्रमाण की कारण सामग्री में पतित होने से स्मृति मुख्य प्रमाण नहीं किन्तु गौण प्रमाण है ) / जैसे अनुमान द्वारा साध्य ज्ञानरूप फल को उत्पन्न करने वाली साध्य और हेतु के सम्बन्ध की स्मृति उपचरित प्रमाण है- इस प्रकार कोई सामग्री को गौणप्रमाण मानने वाला वादी कहता है। आचार्य कहते हैं कि ऐसा कहना भी असंगत है, क्योंकि इस कथन में अकेले अनुमान ज्ञान के ही प्रमाणपने . का प्रसंग आएगा। एक अनुमान ही प्रमाण होगा, प्रत्यक्ष नहीं। प्रत्यक्ष का प्रमाणपना नष्ट हो जाएगा। प्रत्यक्ष प्रमाण नहीं रहेगा जैसे हेतु और उसका फल साध्य के सम्बन्ध को विषय करने वाली स्मृति को प्रमाणपना नहीं माना जाता है॥३२-३३-३४॥ जिस स्मृति से मानस प्रत्यक्ष उत्पन्न होता है, वह स्मृति प्रमाण की सामग्री में अंतर्भूत होने के कारण स्वार्थ में प्रवृत्ति कराने वाली मानी जाती है। जैसे अनुमान ज्ञान है फल जिसका, ऐसी साध्य साधनों के संबंध की स्मृति अनुमानप्रमाणरूप ही है। इस प्रकार अनुमान की सामग्री में अंतर्भूत संबंध का कथन होने से स्मृति अनुमान के अन्तर्गत है, स्वतंत्र प्रमाण नहीं है। इस प्रकार किसी के कहने पर आचार्य कहते हैं प्रत्यक्ष के समान स्मृति का भी अव्यवहित फल जब अपना और अर्थ का विशेष निश्चय करना नियत है तो फिर स्वार्थ की प्रमिति करने में प्रकृष्ट उपकारक होने के कारण प्रत्यक्ष को जैसे प्रमाण कहा जाता है वैसे ही स्वार्थ के निश्चय कराने में कारणं होने से स्मरण का प्रमाणपना क्यों नहीं स्वीकार किया जाता है? तथा परम्परा से उस स्मरणज्ञान के फल भी प्रत्यक्ष के फल समान हेय का परित्याग करना, उपादेय
SR No.004286
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages438
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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